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द्वन्द्व और द्वन्द्व निवारण (जैन- दर्शन के विशेष प्रसंग में)
२३. वही, गाथा, ३४७।
२४. तत्त्वानुशासन, वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट दिल्ली, श्लोक ५६ ।
२५. देखें, डॉ० सागरमल जैन-जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग,
१९८२ पृ० १६-१७।
रे मन !
अपने पर कर अनुशासन पंचेन्द्रियों पर हो जायेगा तेरा शासन |
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पर तू बैठा-बैठा ही न जाने, कहाँ-कहाँ भागता रहता है याचक बन, न जाने क्या-क्या माँगता रहता है ऐसा अनन्तकाल से, करता-करता आया है । पुण्य-पाप, सुख-दुःख के झूले में अपने को सदा झुलाया काम, क्रोध, मान, माया, लोभ में तू भरमाया है अनमोल रतन चिंतामणि आत्मा को तूने भुलाया है समय रहते संयम, तप, त्याग के लिए कर जतन जिनवाणी का स्वाध्याय, कर चिन्तन मनन 1 मिथ्यात्व के अंधकार को चीर, सम्यक्त्व से कर मिलन । क्षयोपशम की प्रक्रिया से आगे आत्मोत्थान का कर सृजन । कर्मों के बंधन स्वयं टूटेगें, बस रहेगा ज्ञान का गगन बिना छुटाये छूटेगा सब मुक्ति करेगी स्वयं वंदन फिर सयोग से होगा अयोग की ओर कदम
मोक्ष
तू ही बंधन
सभी शास्त्र-पुराण कहते, तू ही सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्र मोक्ष पाने के साधन
फिर भक्त नहीं भगवान् बन, सब करेगें तुझे नमन
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रे मन !
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१. मन, वचन, काय की प्रवत्ति सहित योग / तेरहवाँ गुणस्थान (सयोगकेवली) २. जिसमें योगों का सर्वथा अभाव / चौदहवाँ गुणस्थान (अयोगकेवली)
डॉ० (श्रीमती) मुन्नी जैन
जयपुर
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