Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 120
________________ श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ : ११४ को ई०सी० ईविंग की परिभाषा “मूल्य अनुकूलवृत्ति का एक उचित विषय है" (Fitting object of a proattitude) सर्वाधिक मनोग्राही लगी इसी का उसने विशेष रूप से पल्लवन किया है। धर्म साधनमूल्य है अथवा साध्यमूल्य अथवा उभयरूप है इसका विवेचन भी मूल्यवान् है। ग्रन्थ के कतिपय वाक्य चिन्त्य भी प्रतीत होते हैं। जैसे पृष्ठ ७८ में भरत के द्वारा स्वीकृत चार स्थायिभावों में रति, रुद्र, उत्साह और जुगुप्सा को बताया गया है। वस्तुतः यहाँ 'रुद्र' के स्थान पर 'क्रोध' होना चाहिये क्योंकि किसी भी रसशास्त्र के आचार्य ने 'रुद्र' को स्थायिभाव नहीं कहा है। पृष्ठ १८५ में ग्रन्थकार ने योग शब्द के अर्थ का निर्वचन करते हुए 'मिलना' या 'संयुक्त होना' भी कहा है और लगभग सर्वत्र इस शब्द की इसी रूप से अन्विति की है। वस्तुत: युज् धातु का समाधिपरक अर्थ भी होता है और इसी रूप में प्राय: योगशास्त्र में उसका प्रयोग भी हुआ है, पृष्ठ ७८में आचार्य मम्मट के मत को उद्धृत करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है कि वहाँ (मम्मट में) सौन्दर्यानुभूति को ब्रह्मानन्द का आस्वादन भी बताया गया है। वस्तुत: मम्मट ने रस को ब्रह्मानन्द के समान बताया है। ब्रह्मास्वाद नहीं कहा है, सादृश्य होने के कारण ही रस की ब्रह्मानन्द से भिन्नता स्वत:सिद्ध है। इसके अतिरिक्त कुछ वाक्यों में भी आपाततः विसंगति प्रतीत होती है जैसे पृष्ठ-१५ में “मूल्य जो मूल्यवान् है अनिवार्यत: अस्तित्ववान भी हो जरूरी नहीं' इस वाक्य में 'मूल्यवान् है' में 'है' शब्द मूल्य के अनिवार्यत: अस्तित्व का ही तो द्योतक है, पृष्ठ १७ में कहा गया है कि “मूल्यबोध आत्मांश और विषयांश दोनों का ही सामरस्य है।" इस वाक्यं की संगति हम मोक्ष नामक स्वत: सिद्ध मूल्य में कैसे घटित करेंगे वहाँ आत्मांश के अतिरिक्त विषयांश क्या बनेगा? पुन: उक्त वाक्य का पृष्ठ ८९ के इस वाक्य से कैसे सामञ्जस्य हो पाएगा-- “अन्ततोगत्वा मूल्य का स्वरूप आत्म संकेत के अतिरिक्त और कुछ नहीं-आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति'। अस्तु यह सभी बातें नगण्य हैं क्योंकि ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय और शैली दोनों ही इतने आकर्षक हैं कि इसकी मूल्यवत्ता अथवा गुणवत्ता के सम्बन्ध में जो भी कहा जाय थोड़ा ही है, ग्रन्थकार और प्रकाशक दोनों ही इस उत्तम लेखन और प्रकाशन के लिये बधाई के पात्र हैं। प्रो० सुरेशचन्द्र पाण्डे प्राकृत भाषा विभाग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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