Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 22
________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : १९ की स्थिति में होता है। तात्पर्य यह है कि एक ही समय में एक स्वर्ण में विनाश, उत्पत्ति और ध्रुवता देखी जा सकती है। इसी आधार पर जैन दर्शन में तत्त्व को परिभाषित करते हुए कहा गया है- सत् उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य यानी स्थिरता से युक्त है।१२ ___ जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से जो लोग परिचित नहीं हैं, वे तुरन्त यह प्रश्न उपस्थित कर सकते हैं कि एक ही वस्तु में ध्रुवता तथा उत्पत्ति और विनाश कैसे हो सकता है? क्योंकि स्थायित्व और अस्थायित्व दोनों एक दूसरे के विरोधी हैं। अत: एक ही वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय कैसे हो सकता है, किन्तु जैन दर्शन इसका समाधान करते हुए कहता है कि कोई भी वस्तु गुण की दृष्टि से ध्रुव है, स्थायी है तथा पर्याय की दृष्टि से अस्थायी है, उसमें उत्पत्ति और विनाश है। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद अनेकान्तवाद के व्यावहारिक पक्ष को स्याद्वाद के नाम से विभूषित किया जाता है। स्याद्वाद अनेकान्तवाद का ही विकासमात्र है। ‘स्यात्' शब्द अनेकान्त का द्योतक है। १३ स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों एक ही हैं। इसका कारण यह है कि स्याद्वाद में जिस पदार्थ का कथन होता है, वह अनेकान्तात्मक होता है। दोनों में यदि कोई अन्तर है तो मात्र शब्दों का। स्यादवाद में स्यात् शब्द की प्रधानता है तो अनेकान्तवाद में अनेकान्त की। किन्तु मूलत: दोनों एक ही हैं। आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'न्यायकुमुदचन्द्र' में कहा हैअनेकान्तात्मक अर्थ के कथन को स्याद्वाद कहते हैं। १४ 'स्यात्' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है- स्यादिति वादः स्याद्वादः।१५ यहाँ हमें ‘स्यात्' शब्द के दो अर्थ देखने को मिलते हैं- पहला अनेकान्तवाद और दूसरा अनेकान्त के कथन करने की भाषा-शैली। जैन दार्शनिकों ने 'अनेकान्त' एवं 'स्यात्' दोनों शब्दों का एक ही अर्थों में प्रयोग किया है। इन दोनों शब्दों के पीछे एक ही हेतु रहा है और वह हैवस्तु की अनेकान्तात्मकता। यह अनेकान्तात्मकता अनेकान्तवाद शब्द से भी प्रकट होती है और स्याद्वाद से भी। अत: स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों ही एक हैं। दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अन्तर है तो इतना कि एक प्रकाशक है तो दूसरा प्रकाश्य है, एक व्यवहार है तो दूसरा सिद्धान्त। एक और अनेक जैन दर्शन ने अपनी तत्त्वमीमांसा में यह प्रतिपादित किया है कि वस्तु के अनन्त धर्म होते हैं, किन्तु किसी वस्तु के अनन्त धर्मों को जानना हमारे लिए सम्भव नहीं है? अनन्त को तो कोई सर्वज्ञ ही जान सकता है, जिसे पूर्ण ज्ञान की उपलब्धि रहती है। सामान्यजन तो अनन्त धर्मों में से कुछ धर्मों को अथवा एक धर्म को ही जानते हैं। जैन दर्शन की भाषा में कुछ को यानी एक से अधिक धर्मों को जानना प्रमाण है तथा एक धर्म को जानना नय है। इस प्रकार नय न प्रमाण के अन्तर्गत आता है, न अप्रमाण के। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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