Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 24
________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : २१ हम देखते है कि द्रव्यार्थिक रूप में जीव में एकता है, परन्तु पर्यायार्थिक दृष्टि से अनेकता है। नित्यता और अनित्यता सत् के विषय में विद्वानों में मत-भिन्नता देखी जाती है। कोई इसे नित्य मानता है तो कोई अनित्य। इस सम्बन्ध में वेदान्त दर्शन अपरिवर्तनशीलता को स्वीकार करता है तो बौद्ध दर्शन परिवर्तनशीलता को। यहाँ जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु नित्य और अनित्य दोनों है। गुण की दृष्टि से वस्तु में नित्यता देखी जाती है और पर्याय की दृष्टि से अनित्यता। यथा-आम्रफल हरा रहता है किन्तु कालान्तर में वह पीला हो जाता है। फिर भी वह रहता आम्रफल ही है। वस्तु का पूर्व पर्याय नष्ट होता है और उत्तर पर्याय उत्पन्न होता है किन्तु वस्तु का मूल रूप सदा बना रहता है। अत: सत्य नित्य भी है और अनित्य भी है। मिट्टी का एक घड़ा जो आकार, स्वरूप आदि से ही विनाशशील लगता है क्योंकि वह बनता और बिगड़ता रहता है। घड़े का अस्तित्व न तो पहले था और न बाद में रहेगा। किन्तु मूल स्वरूप में मिट्टी मौजूद थी और घड़े के बनने के बाद भी तथा घड़े के नष्ट हो जाने पर भी मौजूद रहेगी। अतः प्रत्येक वस्तु नित्य एवं अनित्य है। साधारणत: दीपक के विषय में ऐसी धारणा है कि इसमें अनित्यता होती है, क्योंकि वह बुझ जाता है। दीपक के विषय में अन्य दर्शनों की भी यही धारणा है। लेकिन जैन दर्शन का कहना है कि अग्नि या तेज की दो पर्यायें होती हैं- प्रकाश और अंधकार। जब एक पर्याय नष्ट होती है तो दूसरी पर्याय आती है। प्रकाश के नष्ट होने पर अंधकार आता है और अंधकार के नष्ट होने पर प्रकाश आता है। पर्यायें बदलती रहती हैं। परन्तु अग्नि का अग्नित्व या तेजत्व नष्ट नहीं होता। अभिप्राय यह है कि दीपक जिसे हम अनित्य मानते हैं वह मात्र अनित्य ही नहीं, बल्कि नित्य भी है। इसी प्रकार आकाश को सामान्यत: नित्य माना जाता है। अन्य दर्शन भी ऐसा मानते हैं क्योंकि आकाश अपने गुण के कारण नित्य तथा पर्याय के कारण अनित्य है। जैन दर्शन में आकाश को अजीव माना गया है। इसका सामान्य धर्म आश्रय देना है। यह इसका गुण है। किन्तु विशेष व्यक्ति अथवा वस्तु को जो आश्रय इसके द्वारा दिये जाते हैं, वे उत्पन्न एवं नष्ट होते हैं। यथा- एक व्यक्ति कमरे में बैठा है। इस समय वह आकाश के अन्दर एक निश्चित आश्रय को प्राप्त कर रहा है लेकिन थोड़ी देर बाद वह कमरे से निकलकर मैदान में बैठ जाता है तो ऐसी स्थिति में उसका आश्रय जो कमरे में था, नष्ट हो गया और मैदान में उत्पन्न हो गया। पहले उसकी उपस्थिति कमरे में थी अब मैदान में हो गयी। यही आकाश के द्वारा दिए गये आश्रय का उत्पन्न तथा नाश होना है। आकाश का पयार्य आकाश की अनित्यता है तथा सामान्य रूप से सबको आश्रय देना आकाश का गुण है जो आकाश की नित्यता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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