Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 45
________________ ४२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ किया गया है। इस प्रकार अनुमानत: १२० सूत्रों की अधिकता स्थानाङ्ग में पायी जाती है। स्थानाङ्ग में कुल २८३१ सूत्र या अनुच्छेद (मधुकरमुनि संस्करण में) उपलब्ध है। इस दृष्टि से स्थानाङ्ग में पुनरावृत्त अंशो और समस्त सामग्री का अनुपात १ : २५ के लगभग है। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है। समवायांग में पुनरावृत्त प्रकरणों की संख्या अत्यल्प है फिर भी कम से कम ७० सूत्र या अनुच्छेद अनावश्यक माने जा सकते है। विभिन्न प्रकरणों से सम्बन्धित पुनरावृत्त स्थलों की विवेचना करने से ज्ञात होता है कि कुछ पुनरावृत्तियाँ युक्तिसंगत हैं। पूर्ववर्ती स्थान में वर्णित विषय के किसी एक भेद के, परवर्ती स्थान में अवान्तर भेद सम्मिलित किये गये हैं जिससे स्वाभाविक रूप से प्रकरण विशेष के भेदों की संख्या में वृद्धि हो गयी है। उदाहरण स्वरूप स्थानांग के छठे स्थान में ज्ञान की दृष्टि से जीव के छ: भेद मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्यवज्ञानी, केवलज्ञानी और अज्ञानी बताये गये हैं- (६/१) इसी प्रकरण के आठवें स्थान में आठ भेद बताये गये है। वहाँ पर पाँच भेद तो पूर्व के समान ही हैं। छठवें भेद अज्ञानी के स्थान पर इसके तीन अवान्तर भेदों मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभङ्ग अज्ञानी के सम्मिलित कर देने से ज्ञान की दृष्टि से जीवों के भेद की संख्या आठ हो गयी है। इसी प्रकार पृथ्वीकायिकों की गति-आगति के प्रकरण में दोनों स्थानों के पाँच भेद समान हैं। छठवें स्थान (६/१०) के अन्तिम भेद त्रसकायिकों के बदले ९वें स्थान में (९/८) में उसके चार उपभेदों-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय जीवों की गणना करने से संख्या ९ हो गयी है। ऋद्धिमंत पुरुषों के प्रसङ्ग में इसके पाँचवें भेद भावितात्मा (अनगार तप से ऋद्धि-अलौकिक शक्ति प्राप्त करने वाले) के स्थान पर छठे स्थान में इसके (भावितात्मा अनगार के) दो भेदों जंघाचारण अनगार और विद्याचारण अनगार को समाविष्ट कर लेने से एक वृद्धि हो गयी है। जंघाचारण अनगार को तप के बल से पृथ्वी का स्पर्श किये बिना ही अधर गमनागमन की लब्धि प्राप्त होती है। विद्याचारण वे अनगर कहलाते हैं जिन्हें आकाश में गमनागमन की शक्ति प्राप्त होती है।* उक्त उदाहरणों में पूर्व में वर्णित किसी भेद-विशेष के बदले उसके अवान्तर भेदों को सम्मिलित करने से संख्या में वृद्धि हुई है। इसके अतिरिक्त कुछ विषयों के प्रसङ्ग में पूर्व में वर्णित भेद-विशेष को, बाद में छोड़ दिया गया है, और उसके स्थान पर नये भेदों को समाविष्ट किया गया है, जो तर्कसङ्गत नहीं प्रतीत होता है। सुषमा के ७ और १० लक्षण दो स्थलों पर वर्णित है।' इनमें दोनों स्थलों के विवरण में ५ लक्षण समान हैं। पाँच के अतिरिक्त मन:शुभता और वचःशुभता हैं। सुषमा के दस लक्षणों के प्रसङ्ग में छठवें भेद मनःशुभता के स्थान पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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