Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 46
________________ स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या : ४३ इसके पाँच भेदों मनोज्ञ शब्द, मनोज्ञ रूप, मनोज्ञ गन्ध, मनोज्ञ रस और मनोज्ञ स्पर्श को समाविष्ट कर दस संख्या पूर्ण कर ली गई है। इसके सातवें भेद वचःशुभता को छोड़ दिया गया है जो युक्तियुक्त नहीं कहा जा सकता है। इसी प्रकार पृथ्वी के सात और आठ भेदों के प्रतिपादन में सातवें भेद (७/२४) के स्थान पर आठवें स्थान में दो भेदों अध:सत्तमा और ईषत्प्राग्भारा को सम्मिलित किया गया है। सर्वजीवों के प्रसङ्ग में जीव के सात और नौ प्रकार बताये गये हैं। दोनों में पाँच प्रकार समान हैं। सात प्रकारों के विवरण में छठे और सातवें प्रकार के रूप में त्रसकायिक और अकायिक का उल्लेख है। जबकि नौ प्रकारों के उल्लेख में त्रसकायिक के बदले इसके चार उपभेदों द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय को सम्मिलित करना तो तर्कसङ्गत है परन्तु सातवें भेद अकायिक को छोड़ देना समीचीन नहीं प्रतीत होता है। ऐसी ही विसङ्गति जम्बूद्वीप के अतीत उत्सर्पिणी एवं आगामी उत्सर्पिणी के सात और दस कुलकरों की उत्पत्ति के प्रसङ्ग में दिखाई पड़ती है। स्वाभाविक रूप से या तो सात कुलकर उत्पन्न हुए थे और होगें, या दस कुलकर उत्पन्न हुए थे और होंगे। अतः भिन्न-भिन्न संख्याओं के प्राप्त होने का कोई औचित्य नहीं है। २३वें तीर्थंकर पार्श्व के ८ गणधरों की संख्या में भी स्थानाङ्ग एवं समवायांग में अन्तर दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त अधिकांश पुनरावृत्त प्रकरणों में अन्तिम विवरण पूर्णता लिये हुए है अत: तत्सम्बद्ध शेष विवरण निरर्थक या अनावश्यक प्रतीत होते हैं और ग्रन्थ के आकार में वृद्धिमात्र करने वाले हैं। सन्दर्भ१. पं०बेचरदास दोशी, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-१, पार्श्वनाथ विद्यापीठ (सं०६) वाराणसी-५, द्वि०सं० १९७९, पृ०-२१३ । २. १/६-७, २/११-१४, ३/१७-१९, ४/२२-२३, ...... ३३/२१७-८ समवायाङ्ग, सम्पा० मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन, समिति, व्यावर। ३. सूत्र : १/२५४-२५६, २/४६३-४६५, ३/५४१-५४२, ४/६५९/ ६६२, ५/२३९-२४०, ६/१२९-१३२, ७/१५४-१५५, ८/१२७-१२८, ९/७३ एवं १०/१७४-१७८। स्थानाङ्ग सूत्र, सम्पा०मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति, व्यावर (जिनागम __ ग्रन्थमाला सं०-७) १९८१। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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