Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 57
________________ ५४ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ जैन वाङ्मय में 'प्रकीर्णक' एक पारिभाषिक शब्द है। इसका अभिप्राय हैविविध विषयों पर रचित स्वतन्त्र ग्रंथ या मुक्तक वर्णन। नन्दीसूत्रवृत्ति (मलयगिरि) के अनुसार तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट श्रुत का अनुसरण करके श्रमण प्रकीर्णकों की रचना करते हैं। परम्परागत मान्यता यह है कि प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में श्रमणों की संख्या के बराबर ही प्रकीर्णकों की संख्या होती है। समवायांगसूत्र में “चौरासीइं पइण्णगं सहस्साइं पण्णत्ता' कहकर आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के चौरासी हजार शिष्यों तथा प्रत्येक के एक-एक, इस प्रकार चौरासी हजार प्रकीर्णकों का उल्लेख किया गया है। इसी प्रकार अंतिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के तीर्थ में चौदह हजार श्रमणों के चौदह हजार प्रकीर्णक माने जाते हैं। परन्तु यह केवल मान्यता है। अधिकतम मान्य ३० प्रकीर्णकों में से केवल ९ प्रकीर्णकों का उल्लेख नंदीसूत्र में प्राप्त आगमों की सूची में है। अत: स्वाभाविक रूप से प्रकीर्णकों की संख्या नंदीसूत्र में उपलब्ध प्रकीर्णकों की संख्या से अधिक है। प्रस्तुत लेख तित्थोगाली प्रकीर्णक से सम्बन्धित है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख व्यवहार भाष्य (जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, सातवीं शती) में प्राप्त होता है। तित्थोगाली प्रकीर्णक का उल्लेख नन्दीसूत्र (रचनाकाल तीसरी शती) में अनुपलब्ध होने और व्यवहारभाष्य में उपलब्ध होने से इसकी समय सीमा तीसरी शताब्दी के बाद और सातवीं शताब्दी के पूर्व निश्चित की जा सकती है। इसके रचनाकार अज्ञात हैं। यह मुख्यत: जैन धर्म सम्मत इतिहास, भूगोल, खगोल आदि का वर्णन करता है। प्रस्तुत शोध-पत्र में इसकी गाथा संख्या के विषय में प्राप्त अंतर्विरोध पर विचार प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ मुनि पुण्यविजय जी द्वारा संपादित पइण्णयसुत्ताई भाग-१ में संग्रहीत तित्थोगाली प्रकीर्णक में १२६१ गाथाएँ उपलब्ध हैं। परन्तु अंतिम १२६१ वी गाथा में इसकी गाथा संख्या १२३३ बतायी गयी है, "तेत्तीसं गाहाओ दोन्नि सता ऊ सहस्समेगं च। तित्थोगाली संखा एसा भणिया उ अंकेण ।।" वस्तुत: पूर्व के किसी अज्ञात सम्पादक ने (ग्रन्थ के पादटिप्पण में सम्पादक कल्पित उल्लिखित है, लेकिन हम यह मान कर चल रहे हैं कि यह सम्पादक मुनि पुण्यविजय जी नहीं बल्कि पूर्व के कोई अज्ञात सम्पादक हैं।) विषय की क्रमबद्धता को अविच्छिन्न रखने के लिए कई स्वकल्पित गाथाओं को ग्रहण किया है तथा कई गाथाओं के दूसरे श्वेताम्बर आगमों से ग्रहण करने का उल्लेख किया है। अन्य आगमों से गृहीत तित्थोगाली की गाथाएँ इसप्रकार हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .

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