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श्रमण)
पिप्पलगच्छ का इतिहास
डॉ. शिवप्रसाद
निर्ग्रन्थ धर्म के श्वेताम्बर आम्नाय के अन्तर्गत पूर्वमध्यकाल और मध्यकाल में विभिन्न गच्छों के रूप में अनेक भेद-प्रभेद उत्पत्र हुए। चन्द्रकुल (बाद में चन्द्रगच्छ) के आचार्य उद्योतनसूरि ने वि०सं० ९९४/ई० सन् ९३८ में अर्बुदगिरि की तलहटी में स्थित धर्माण (वरमाण) नामक सनिवेश में वटवृक्ष के नीचे अपने आठ शिष्यों को आचार्य पद प्रदान किया, जिनकी शिष्यसंतति वटवृक्ष के कारण वडगच्छीय कहलायी। इसी गच्छ में विक्रम सम्वत् की १२वीं शती के मध्य में आचार्य सर्वदेवसूरि, उनके शिष्य आचार्य शांतिसूरि और प्रशिष्य विजयसिंहसूरि हुए। पिप्पलगच्छ से सम्बद्ध उत्तरकालीन साक्ष्यों के अनुसार आचार्य शांतिसूरि ने पीपलवृक्ष के नीचे विजयसिंहसूरि आदि ८ शिष्यों को आचार्य पद दिया, इसप्रकार वडगच्छ की एक शाखा के रूप में पिप्पलगच्छ का उद्भव हुआ।
अन्यान्य गच्छों की भाँति पिप्पलगच्छ में भी अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। . विभिन्न साक्ष्यों से इस गच्छ की त्रिभवीयाशाखा और तालध्वजीयाशाखा का पता चलता है।
पिप्पलगच्छ के इतिहास के अध्ययन के लिये साहित्यिक और अभिलेखीय दोनों प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं। साहित्यिक साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के परवर्ती मुनिजनों के द्वारा रची गयी कुछ कृतियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित गुरु-परम्परा के साथ-साथ इसी गच्छ के धर्मप्रभसूरि नामक मुनि के किसी शिष्य द्वारा रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली तथा किसी अज्ञात कवि द्वारा अपभ्रंश भाषा में रचित पिप्पलगच्छगुर्वावली-गुरहमाल का उल्लेख किया जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों के अन्तर्गत इस गच्छ के मुनिजनों द्वारा प्रतिष्ठापित जिन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों की चर्चा की जा सकती है। ऐसे लेख बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। ये वि०सं० १२०८ से वि०सं० १७७८ तक के हैं। प्रस्तुत निबन्ध में उक्त साक्ष्यों के आधार पर इस गच्छ के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
पिप्पलगच्छ का उल्लेख करने वाला सर्वप्रथम साहित्यिक साक्ष्य है विक्रम संवत् की पन्द्रहवीं शती के तृतीय चरण के आस-पास इस गच्छ के धर्मप्रभसूरि के किसी शिष्य द्वारा *. प्रवक्ता - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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