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श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
(५) बीजरुह→
(६) संमूर्छिम उपर्युक्त तालिका से ज्ञात होता है कि लोकस्थिति सम्बन्धी ३/२/३/९ आदि तीन सूत्र, ८/११४ सूत्र की उपस्थिति में अनावश्यक सिद्ध हो जाते हैं। इसीप्रकार १०/७३ (प्रायश्चित्त) और ६/१२ (तृणवनस्पति) की उपस्थिति में क्रमश: ३/४/४४८ आदि चार और ४/१/५७ आदि दो सूत्र निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं।
__ जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है स्थानाङ्ग में एक पदार्थ या विषय को दो स्थानों पर प्रतिपादित किये जाने की बहुलता है। ऐसे पदार्थों की संख्या लगभग ७० है। इसके अतिरिक्त लगभग दस विषयों का तीन स्थलों पर, चार विषयों का चार स्थलों पर, प्रायश्चित्त का पाँच स्थानों पर और पुद्गल का दस स्थानों पर संग्रह है।
दो स्थलों पर पुनरावृत्त तथ्यों का विवरण इस प्रकार है- बोधि के ज्ञानादि, बुद्ध के ज्ञानबुद्धादि, धर्म के श्रुतधर्मादि और प्रत्याख्यान त्याग के मनादि द्वारा, दो और तीन प्रकार, कर्म के प्रदेश कर्मादि११ एवं जम्बूद्वीप में मन्दर पर्वत के दक्षिण में हैमवत
और उत्तर में हैरण्यवत क्षेत्र में वृत्तवैताढ्य के दो और चार भेद,१२ मन्दरपर्वत से दक्षिण में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत से ऊपर कूटों की और मंदर पर ही महाह्रदों की संख्या दो और छ: बतायी गई है। औपमिक काल के पल्योपमादि५ तथा दर्शन के सम्यग्दर्शनादि दो और आठ भेद१६ वर्णित हैं। समाधि, उपधान, विवेक आदि बारह प्रतिमाओं का दो स्थलों पर वर्णन है।
__पुन: जीव के त्रस और स्थावर के तीन-तीन भेदों की जीव निकाय के ६ भेदों के रूप में पुनरावृत्ति, प्रणिधान१८, सुप्रणिधान१९, और दुष्पणिधान२० के मन, वचन कायादि क्रमश: तीन और चार भेद, देवों के देवलोक से मनुष्यलोक में शीघ्र न आ सकने के तीन और चार कारण, वाचना के अयोग्य और योग्य तीन और चार प्रकार के साध२२, प्रव्रज्या के तीन-तीन के चार वर्ग और चार-चार के पाँच वर्ग२३, वर्णित हैं।
मनुष्य लोक और देवलोक में अन्धकार होने और प्रकाश होने , देवों के मनुष्य लोक में आगमन', देवों की सामूहिक उपस्थिति', देवों का कलकल शब्द', देवेन्द्रों का मनुष्य लोक में शीघ्र आगमन", सामानिक आदि देवों के अपने सिंहासन से उठने', - सिंहनाद करने , वस्त्रों के उछालने, देवों के चैत्यवृक्षों के चलायमान होने', और लोकान्तिक देवों के मनुष्यलोक में आने', इनमें से प्रत्येक के तीन और चार कारण बताये गये हैं।२४
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