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स्थानाङ्ग एवं समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति की समस्या
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ग्रन्थों में प्राप्त विषय-पुनरावृत्ति की समस्या का तथ्यगत विवेचन करने की आवश्यकता प्रतीत हुई। सामान्य अवधारणा है कि इन दोनों अङ्गों में पुनरावृत्ति की बहुलता है और यदि पुनरावृत्त विषयों को ग्रन्थ से पृथक् कर दिया जाय तो दोनों ग्रन्थों का कलेवर अत्यन्त छोटा हो जायगा।
दोनों ग्रन्थों में बहुत से ऐसे तत्त्व, पदार्थ या प्रकरण संगृहीत या वर्णित हैं जिनका विवरण एक से अधिक स्थानों पर उपलब्ध है। एक तथ्य का एक से अधिक स्थलों पर प्रतिपादन निरर्थक है। स्वाभाविक रूप से पूर्ववर्ती स्थानों या सूत्रों की अपेक्षा पश्चाद्वर्ती स्थानों या सूत्रों का विवरण अधिक पूर्णता लिये हुए है। परिणामतः तथ्य-विशेष से सम्बन्धित अन्तिम विवरण की उपस्थिति में तद्विषयक अन्य सभी पूर्ववर्ती विवरण अप्रासङ्गिक या निरर्थक सिद्ध हो जाते हैं। इन दोनों ग्रन्थों में विषयों का वर्गीकरण, व्यवस्थित योजना के अनुरूप न होना ही मुख्यतः पुनरावृत्ति की समस्या के मूल में हो सकता है। यह भी माना जा सकता है कि ग्रन्थ के आरम्भिक स्थानों में विषय के मुख्य प्रकारों या भेदों को बता दिया गया है। बाद में यथास्थान अवसरानुकल अन्य भेदों या अवान्तर भेद सहित विषयों का वर्णन किया गया है। श्रुतिपरम्परा द्वारा ही श्रुतों का ज्ञान होने से ग्रन्थ रचना में स्वाभाविक रूप से स्मरण सुविधा का विशेष ध्यान रखा जाता था। किसी प्रकरण के कुछ अंशों का स्मरण करने पर सम्पूर्ण प्रकरण का स्मरण हो आता है। सम्भवतः इसलिए भी विषय का पहले आंशिक और बाद में अपेक्षाकृत विस्तृत वर्णन है। विषय-विशेष का क्रमिक विकास भी इन ग्रन्थों में प्राप्त पुनरावृत्ति का कारण हो सकता है। यह भी सम्भव है कि सूत्रकार की शैली ही ऐसी रही हो। परन्तु उक्त सभी तर्कों को स्वीकार करने में प्रमुख बाधा ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन प्रणाली की एकरूपता का अभाव है। यदि कुछ विषयों का एक कारण से या उक्त सभी कारणों से पुनरावृत्ति आवश्यक थी या हुई है तो समस्त विषयों की क्यों नहीं? विषय-प्रतिपादन में एकरूपता का यह अभाव ही पुनरावृत्ति को इन ग्रन्थों का निर्बल पक्ष बना देता है।
पुनरावृत्ति की दृष्टि से स्थानाङ्ग में एक पदार्थ अथवा क्रिया के दो स्थानों पर प्रतिपादित किये जाने की बहुलता है। कुछ तथ्यों का तीन, कुछ का चार और कुछ का पाँच स्थलों पर भी निरूपण हुआ है। पुद्गल सम्बन्धी विवरण स्थानाङ्ग के दसों स्थानों के अन्त में प्राप्त होता है। जहाँ तक समवायाङ्ग में पुनरावृत्ति का प्रश्न है, निश्चित रूप से इसमें पुनरावृत्त विषयों की संख्या कम है। परन्तु इसमें रत्नप्रभा पृथ्वी के नारकों आदि का विवरण' एक से ३३ समवाय पर्यन्त सभी समवायों में प्राप्त होता है।
पुनरावृत्त पदार्थों की दृष्टि से यह दृष्टान्त सर्वाधिक उल्लेखनीय है। समवायाङ्ग में, रत्नप्रभा पृथ्वी के कुछ नारकों, शर्करापृथ्वी के कुछ नारकों, असुरकुमारदेवों, और भवनवासियों असंख्यात वर्ष आयूष्कों, गर्भोपक्रान्तिक संज्ञी मनुष्यों, वाणव्यन्तर देवों, ज्योतिष्कदेवों, सौधर्मकल्पदेवों, ईशानकल्प देवों, की स्थिति प्रथम समवाय में यथाप्रसङ्ग
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