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श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
जैसे समुद्र का एक अंश न समुद्र है और न असमुद्र बल्कि समुद्रांश है, उसी प्रकार नय भी प्रमाणांश है।१६ नय को परिभाषित करते हुए कहा गया है- प्रमाण से स्वीकृत वस्तु के एकदेश का ज्ञान कराने वाले परामर्श को नय कहते हैं।१७
___ आचार्य प्रभाचन्द्र ने कहा है- प्रतिपक्ष का निराकरण करते हुए वस्तु के अंश को ग्रहण करना नय है। १८ प्रमाण, नय और दर्नय के भेद को स्पष्ट करते हुए आचार्य हेमचन्द्र ने 'अन्य योग व्यवच्छेदद्वात्रिंशिका' में लिखा है '९ – वस्तु का कथन तीन प्रकार से होता है- 'सदेव' अर्थात् सत् ही है, 'सत्' अर्थात् सत् है, 'स्यात् सत्' अर्थात् कथंचित् सत् है। सत् ही है में भाषा में निश्चयात्मकता आ जाने से अन्य धर्मों का निषेध हो जाता है। “सत् है' में अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता रखकर कथन की अभिव्यक्ति होती है। "स्यात् सत् है' में सत् को किसी अपेक्षा से माना गया है, क्योंकि वह ‘स्यात्' पद से युक्त है। उपर्युक्त तीनों कथनों में पहला प्रकार दुर्नय है, दूसरा प्रकार नय तथा तीसरा प्रकार प्रमाण यानी अनेकान्त है। नय ज्ञाता का एक विशिष्ट दृष्टिकोण है। एक ही वस्तु के विषय में अनेक दर्शकों के अनेक दृष्टिकोण होते हैं, जो परस्पर मेल खाते हुए प्रतीत नहीं होते तथापि उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें भी सत्य का अंश रहता है। २०
जैन दर्शन यह मानता है कि प्रत्येक वस्तु में एकता तथा अनेकता है। जीव द्रव्य की एकता और अनेकता का प्रतिपादन करते हुए महावीर ने कहा है- सोमिल! द्रव्य दृष्टि से मैं एक हूँ। ज्ञान और दर्शन की दृष्टि से मैं दो हूँ। न बदलने वाले प्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। बदलते रहने वाले उपयोग की दृष्टि से मैं अनेक हूँ। २१ इसी प्रकार अजीव द्रव्य की एकता और अनेकता का स्पष्टीकरण करते हए उन्होंने कहा है- हे गौतम! धर्म स्तिकाय द्रव्य दृष्टि से एक है, इसलिए वह सर्वस्तोक है। वहीं धर्मास्तिकाय में प्रदेशों की अपेक्षा असंख्यात् गुण भी हैं। २२ अधर्मास्तिकाय आकाश आदि द्रव्य दृष्टि से एक और प्रदेश दृष्टि से अनेक हैं। एक अनेक के सिद्धान्त को और भी सरल तरीके से इस प्रकार समझा जा सकता है कि मान लें राम एक व्यक्ति है। उसकी ओर इशारा करते हुए हम कई लोगों से पूछते हैं- यह कौन है? हमारे इस प्रश्न के उत्तर में क्रमश: प्रत्येक व्यक्ति कहता है- पहला-राम जीव है। दूसरा-राम मनुष्य है। तीसरा- राम क्षत्रिय है। चौथा- राम मेरा पिता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि उत्तरों में विभिनता है, फिर भी वे सब सत्य हैं। प्रथम व्यक्ति राम को एक पूर्ण द्रव्य के रूप में देखता है। दूसरा पयार्य के रूप में। तीसरा भी पर्याय के रूप में तथा बाकी के उत्तरदाता
और अधिक सूक्ष्मता से पर्याय के भिन्न-भिन्न रूपों को देखते हैं। अत: प्रथम व्यक्ति को राम कहने का अधिकार है किन्तु राम मनुष्य नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है। इसी तरह दूसरे व्यक्ति को 'राम मनुष्य है' कहने का अधिकार है किन्तु राम जीव नहीं है, कहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि राम में जीव एवं मनुष्यत्व दोनों विद्यमान हैं। इस तरह
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