Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 29
________________ २६ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६ विश्व के सम्बन्ध में आज यही अपूर्णता घातक सिद्ध हो रही है। क्योंकि व्यक्ति खुद को एवं समाज को जाने बिना ही राष्ट्र एवं विश्व के प्रति अपना मत व्यक्त करने का प्रयत्न करता है। धर्म और दर्शन, जो सदियों से विविध प्रकार के संतापों से मुक्ति पाने का साधन माना जाता रहा है, मानव हृदय की दुर्बलता एवं संर्कीणता ने उसे भी दूषित कर दिया है। आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग अब तक किया जाता रहा है, आज वही पानी आग लगाने का कार्य कर रहा है तो फिर आग कैसे बुझेगी? शान्ति की प्राप्ति के लिए धर्म और दर्शन मानव समाज में आए लेकिन वे ही आज अशान्ति के कारण बन गए हैं। एक ओर मनुष्य, मनुष्य का शोषण कर रहा है, व्यक्ति-व्यक्ति के प्रति मानसिक अन्तर्द्वन्द्व, मन-मुटाव, आशंका के कारण आज राष्ट्र शीतयुद्ध के दौर से गुजर रहा है। ऐसी स्थिति में सर्वत्र ऐसे चिन्तन एवं विचारों की आवश्यकता है जो व्यक्ति-व्यक्ति के बीच, समाज-समाज के बीच, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच समरसता, समन्वय एवं सामञ्जस्य स्थापित कर सके। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए दृष्टि एक ही ओर जाती है, और वह है- अनेकान्त का सिद्धान्त। अनेकान्तवाद ही है जो अनेकता में एकता, अनित्यता में नित्यता, असत्व में सत्व को एक सूत्र में पिरो सकने की क्षमता रखता है। आज का युग अन्वेषण एवं परीक्षण का युग है जिससे अनेक आणविक परीक्षण हो रहे हैं। वैचारिक धरातल पर अनेकान्तवाद का स्थान सर्वोपरि है। अनेकान्तवाद की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। चाहे वह दर्शन का क्षेत्र हो या विज्ञान का, चाहे धार्मिक हो या सामाजिक, राजनीतिक हो या सांस्कृतिक, राष्ट्रीय हो या अन्तर्राष्ट्रीय। आज के सन्दर्भ में अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिह्न लग गया है कि क्या अनेकान्तवाद आज की तमाम समस्याओं को सुलझाने में सक्षम है? जहाँ तक प्रासंगिकता का प्रश्न है तो अनेकान्तवाद जितना प्रासंगिक महावीर के काल में था, उससे कहीं ज्यादा प्रासंगिक आज के सन्दर्भ में हो गया है। अत: आज के सन्दर्भ में धार्मिक, वैचारिक, सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में उसकी प्रासंगिकता पर दृष्टिपात करना आवश्यक सा जान पड़ता है। धार्मिक सन्दर्भ में 'धर्म' एक व्यापक शब्द है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति, समाज, जाति, देश आदि सभी अन्तर्भूत हो जाते हैं। धर्म के सन्दर्भ में भिन्न-भिन्न विचारधाराएँ देखी जाती हैं। कोई कहता है कि कर्म ही धर्म है, कोई कहता है जीव पर दया करना धर्म है, किसी के अनुसार परमार्थ पथ पर जीवन की आहुति देना धर्म है, कोई कहता है समाज, देश और जाति की रक्षा के लिए आपत्तिकाल में लड़ना धर्म है। परन्तु सही मायने में देखा जाए तो मानव का सम्पूर्ण जीवन ही धर्म क्षेत्र है। मानव धर्म एक ऐसा व्यापक धर्म है जिसका पालन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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