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२२ : श्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९६
इसी प्रकार जीव की नित्यता एवं अनित्यता के विषय में भगवान् महावीर ने कहा है
गौतम! जीव किसी दृष्टि से शाश्वत है तो किसी दृष्टि से अशाश्वत। गौतम! द्रव्यार्थिक दृष्टि से जीव शाश्वत है तो भावार्थिक दृष्टि से अशाश्वत।२३ अर्थात् जीव में जीवत्व का कभी अभाव नहीं होता। जीव चाहे किसी भी अवस्था में हो, जीव ही होता है। यह द्रव्यार्थिक दृष्टि है। इस संदर्भ में जीव नित्य है। जीव किसी न किसी पर्याय में होता है। एक पर्याय को छोड़कर दूसरी पर्याय को ग्रहण करता है। यह पर्यायार्थिक दृष्टि है। इस सन्दर्भ में जीव अनित्य है। लोक की सीमितता और असीमितता के सवाल का समाधान भी इसी प्रकार किया है
लोक द्रव्य दृष्टि से सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से सान्त है, काल दृष्टि से अनन्त है और भाव (प्रक्रिया) दृष्टि से अनन्त है।२४ लोक को चार प्रकार से जाना जाता है- द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप से। द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि वह संख्या में एक है। क्षेत्र की दृष्टि से भी सान्त है, क्योंकि सम्पूर्ण आकाश के कुछ क्षेत्र में ही लोक का वास है। काल की दृष्टि से लोक अनन्त है क्योंकि वर्तमान, भूत और भविष्य का कोई क्षण ऐसा नहीं जिसमें लोक का अस्तित्व न हो। ऐसे ही भाव की दृष्टि से भी लोक अनन्त है, क्योंकि एक लोक के अनन्त पर्याय हैं। इस तरह जैन दर्शन नित्यता एवं अनित्यता के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। यही अनेकान्तवाद है।
सामान्य और विशेष
सामान्य और विशेष के विषय में भी मतमतान्तर पाये जाते हैं। कोई सिर्फ सामान्य की सत्ता को स्वीकार करता है तो कोई केवल विशेष की सत्ता को। वेदान्त, सांख्य, मीमांसा आदि सामान्य की सत्ता को स्वीकार करते हैं। इन लोगों का कहना है कि जो कुछ भी है सामान्य है, सामान्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। यदि सामान्य न हो तो विशेष का अस्तित्व ही न हो। 'मनुष्यत्व' सामान्य है और मनुष्यत्व के बिना राम, मोहन, सोहन आदि विशेष मनुष्यों का अस्तित्व नहीं हो सकता है। अत: सामान्य की ही सत्ता है। ठीक इसके विपरीत बौद्ध दर्शन की मान्यता है। बौद्ध दर्शन विशेष की सत्ता में विश्वास करता है। विशेष के कारण ही किसी की सत्ता होती है। सामान्य की सत्ता विशेष से अलग नहीं हो सकती। क्या मनुष्यत्व राम, श्याम आदि मनुष्यों से अलग पाया जा सकता है? नहीं! अत: तत्त्व सामान्य नहीं बल्कि विशेष है। वैशेषिक दर्शन सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता में विश्वास करता है, लेकिन दोनों को अलग-अलग मानते हुए कहता है कि सामान्य-विशेष दोनों ही समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन का कथन इन सब मान्यताओं से बिल्कुल अलग है। जैन दर्शन वैशेषिक दर्शन की भाँति सामान्य और विशेष दोनों की सत्ता मानता है, परन्तु अलग-अलग नहीं। दोनों ही सापेक्ष हैं।
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