Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ श्रमण अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता डॉ. विजय कुमार अनेकान्तवाद जैनधर्म दर्शन के प्रमुख सिद्धान्तों में से एक हैं, जो आग्रही मंतव्यों वैचारिक संघर्षों के समाधान की संजीवनी है। आज का जनजीवन संघर्ष से आक्रान्त है, विश्व में द्वेष और द्वन्द्व का दावानल सुलग रहा है। मानव अपने ही विचारों के कटघरे में आबद्ध है, आलोचना और प्रत्यालोचना का दुश्चक्र तेजी से चल रहा है। वह एकान्त पक्ष का आग्रही होकर अंधविश्वासों के चंगुल में फँसता जा रहा है। क्षुद्र व संकुचित मनोवृत्ति का शिकार होकर एक दूसरे पर छींटाकसी कर रहा है। वह अपने मन्तव्यों को सत्य और दूसरे के विचारों को मिथ्या सिद्ध करने पर तुला रहता है। "सच्चा सो मेरा'' सिद्धान्त को भूलकर "मेरा सो सच्चा' सिद्धान्त की घोषणा कर रहा है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में अशान्ति की लहर दौड़ रही है। इतना ही नहीं, जब मानव में संकीर्णवृत्ति से उत्पन्न हए अहङ्कार, असहिष्णता आदि का चरमोत्कर्ष होता है तब धार्मिक व सामाजिक क्षेत्र में भी रक्त की नदियाँ बहने लगती हैं। ऐसी परिस्थितियों से उबरने के लिए ही जैन धर्म-दर्शन ने अनेकान्त का सिद्धान्त विश्व को प्रदान किया है। अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो ‘अनेक' में विश्वास करता है। अनेक का तात्पर्य है--- अनेक धर्म (लक्षण), अनेक सीमाएँ, अनेक अपेक्षाएँ, अनेक दृष्टियाँ आदि। जो किसी एक धर्म, एक सीमा, एक अपेक्षा तथा एक दृष्टि को सत्य मानता है और अन्य दृष्टियों को गलत कहता है, वह एकान्तवादी कहलाता है तथा जो अनेक धर्मों या अपेक्षाओं को मान्यता प्रदान करता है, वह अनेकान्तवादी कहलाता है। जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से ऐसा ही ज्ञात होता है कि वह अनेक में विश्वास करता है। इसीलिए उसका तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्त अनेकान्तवाद (Pluralism) अथवा सापेक्षतावाद (Theory of Relativity) के नाम से जाना जाता है। *. प्रवक्ता, अहिंसा, शांति और मूल्य-शिक्षा विभाग, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-२२१००५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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