Book Title: Sramana 1996 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 18
________________ अनेकान्तवाद और उसकी व्यावहारिकता : १५ 'अनेकान्त' का शाब्दिक अर्थ 'अनेकान्त' शब्द दो शब्दों के योग से बना है- 'अनेक' + 'अन्त'। 'अन्त' शब्द का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ बताते हुए कहा गया है कि वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को जानना अनेकान्त है।' 'न्यायदीपिका' में अनेकान्त को परिभाषित करते हुए कहा गया है- जिसके सामान्य-विशेष पर्याय व गुणरूप अनेक अन्त या धर्म हैं, वह अनेकान्त रूप सिद्ध होता है। इसी प्रकार 'समयसार' में कहा गया है- जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है। ___इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व को उपजाने वाली परस्पर विरुद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। अत: स्पष्ट है कि अनेकान्तवाद वह सिद्धान्त है जो अनेक अन्त या अनेक धर्मों में विश्वास करता है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो अनेकान्तवाद का अर्थ है- प्रत्येक वस्तु का भिन्न-भिन्न दृष्टियों से विचार करना, परखना, आदि। अनेकान्तवाद का यदि हम एक ही शब्द में अर्थ समझना चाहें तो उसे अपेक्षावाद कह सकते हैं। जैन दर्शन में सर्वथा एक ही दृष्टिकोण से पदार्थ का अवलोकन करने की पद्धति को अपूर्ण एवं अप्रामाणिक समझा जाता है और एक ही वस्तु में विभिन्न धर्मों को विभिन्न दृष्टिकोणों से निरीक्षण करने की पद्धति को पूर्ण एवं प्रामाणिक माना जाता है। यह पद्धति ही अनेकान्तवाद है। अनेकान्तवाद के प्रवर्तक यहाँ हमारे समक्ष दो दृष्टिकोण उपस्थित होते हैं- इतिहास और परम्परा। यदि हम परम्परा की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं कि अनेकान्त के उद्भावक प्रथम तीर्थंकर आदिपुरुष ऋषभदेव हैं, जिन्होंने सर्वप्रथम यह उपदेश दिया। ऋग्वेद में ऋषभ और नेमिनाथ आदि तीर्थंकरों के नाम आये हैं, जिससे यह प्रतीत होता है कि अनेकान्त का प्रवर्तन वैदिक काल के पहले का है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से अनेकान्त के प्रवर्तक के रूप में जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थकर भगवान् महावीर का नाम आता है। जैसा कि भगवतीसूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर ने स्वप्न में एक चित्र-विचित्र पुंस्कोकिल को देखा, जिसके कारण वे स्व-पर सिद्धान्तों से प्रेरित हुए। उन्होंने अपने मत के साथ अन्य मतों को भी उचित सम्मान दिया। उन्होंने जिस पुंस्कोकिल को देखा वह अनेकान्तवाद या सापेक्षवाद का प्रतीक था। उसके विभिन्न रंग, विभिन्न दृष्टियों को इंगित कर रहे थे। कोकिल का रंग यदि एक होता तो सम्भवतः महावीर एकान्तवाद का प्रतिपादन करते। किन्तु बात ऐसी नहीं थी, उन्हें तो अनेकान्तवाद को प्रतिष्ठित करना था और उन्होंने वैसा ही किया। परन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय के अनुसार अनेकान्तवाद के उद्भावक तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ हैं।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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