Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ १२ : श्रमण/अक्टूबसदिसम्बर/१९९५ नहीं था। वह कुषाणवंशीय नरेश था और इस वंश के नरेशों की उपस्थिति के संकेत चतुर्थ शताब्दी ईस्वी तक प्राप्त होते हैं। समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति में दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि की उपाधि धारण करने वाले कुषाणों को उत्तर कुषाण या किदार कुषाण कहा गया है। ये कुषाण सर्वकरदान अर्थात् सभी प्रकार के करों को देने वाले के रूप में उल्लिखित हैं। दो-तीन शताब्दियों के अन्तराल में ही जैन विद्वानों ने कुषाणों को शक मान लिया होगा - सहज विश्वास नहीं होता। जबकि शकों की प्रभावशाली सत्ता कुषाणों के उपरान्त भी बनी रहती है। पाँचवीं शताब्दी में समुद्रगुप्त के महत्त्वाकांक्षी पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय को शकों को हराने के कारण ही शकारि की उपाधि दी गयी। अतः यह निश्चित है जैन आचार्य वीर निर्वाण के ६०५ वर्ष ५ माह पश्चात् जिस शक नरेश के होने का उल्लेख कर रहे हैं, वह कनिष्क तो नहीं ही है और न उसका तात्पर्य ७८ ई० सन् से प्रारम्भ होने वाले शक सम्वत् से ही है। फिर यह शक नरेश कौन है ? यदि इतिहास के पन्नों को पलटें तो हम शकों की कई जातियों को भारत पर राज्य करते हुए पाते हैं। इनमें कार्दमक और क्षहरात वंश के शक अत्यन्त प्रभावशाली थे। कार्दमक वंश के रुद्रदामन एवं क्षहरात वंश के नहपान ने भारत के एक विशाल भूभाग पर शासन किया था। जूनागढ़ अभिलेख से रुद्रदामन का काल १३० से १५० ई० सन् के मध्य पड़ता है। इसी प्रकार जोगलथम्भी मुद्रा भण्डारों से नहपान का समय भी १२४-२५ ई० के लगभग निश्चित होता है। नहपान का साम्राज्य उत्तर में राजस्थान से लेकर दक्षिण में नासिक तक विस्तृत था। उसके साम्राज्य के दक्षिण-पश्चिमी भूभाग पर उसका दामाद ऋषभदत्त शासन कर रहा था। ऋषभदत्त जो नहपान की पुत्री दक्षमित्रा का पति था, अत्यन्त धार्मिक विचारों वाला व्यक्ति था। उसके द्वारा दिये गये पवित्र दानों के उल्लेख हमें कार्ले ( जिला पूना, महाराष्ट्र ) एवं नासिक के गुहा लेखों से प्राप्त होते हैं। जैसा कि नाम से स्पष्ट है वह निश्चय ही जैनधर्म से प्रभावित जैन श्रावक रहा होगा। वह न केवल अपने साम्राज्य में अपितु साम्राज्य के बाहर भी पवित्र-स्थलों के दर्शन हेतु तीर्थयात्रा पर जाया करता था। यदि हम महावीर की निर्वाण-तिथि ४८१ ई० पू० मानते हैं तो तित्थोगाली एवं तिलोयपण्णत्ति में वर्णित ६०५ वर्ष और ५ माह की तिथि १२४-२५ ई० सन् पड़ती है और यही काल शक नरेश ऋषभदत्त का है। मेरी दृष्टि में जैन आचार्य जिस शक नरेश का उल्लेख कर रहे हैं, वह और कोई नहीं बल्कि शक नरेश ऋषभदत्त ही है। ऋषभदत्त ने जैन आचार्यों को निश्चय ही विशेष सुविधा प्रदान की होगी। इसके बारे में प्रामाणिक साक्ष्यों का अभाव है, फिर भी इसकी जैनधर्म से प्रभावित होने की सम्भावना अत्यधिक प्रबल है। मौर्यों के पतन एवं गुप्तों के उदय के पूर्व के काल को इतिहासकारों ने अन्धकार-युग (Dark-Age) के नाम से पुकारा है। इस काल में भारत पर विदेशी आक्रमणों की बाढ़ सी आ जाती है। यवनों-शकों-कुषाणों के निरन्तर आक्रमण की सूचना हमें प्राप्त होती है। परन्तु यदि यह आक्रान्ताओं का काल है तो हमें स्वीकार करने में यह संकोच नहीं करना चाहिए कि यह भारतीय संस्कृति के समृद्धि का भी काल है। दो-तीन शताब्दियों के भीतर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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