Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 17
________________ १३ : अमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५ इन विदेशी आक्रान्ताओं का भारतीयकरण प्रारम्भ हो जाता है और गुप्तकाल आते-आते इनका भारतीयकरण प्रायः पूर्ण हो जाता है। गुप्तकाल जिसे हम भारतीय इतिहास का स्वर्ण-युग कहते हैं वस्तुतः इसी तथाकथित अन्धकार-युग की सुदृढ़ आधारशिला पर खड़ा है। यह अन्य कार युग भारत की आर्थिक समृद्धि का नव-निर्माण काल था। विदेशियों द्वारा भारतीयों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध इसी काल में प्रारम्भ होते हैं और वे सहर्ष भारतीय धर्म को अंगीकार करते हुए प्रदर्शित हैं। इनमें सर्वप्रसिद्ध ऐतिहासिक उदाहरण हेलियोडोरस नामक यूनानी का गरुड़ध्वज अभिलेख है जिसमें वह वैष्णव धर्म में दीक्षित होता हुआ प्रदर्शित है। कार्दमकवंशीय शक नरेश रुद्रदामन ने दक्षिणापथ के सातवाहनों, आन्ध्रपथ के इक्ष्वाकुओं एवं वैशाली के लिच्छवियों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये। इसी काल में यवन नरेश मिनेण्डर ने बौद्धध गर्म अंगीकार किया। कुषाण-वंश में कनिष्क की चौथी पीढ़ी में वासुदेव नामधारी नरेश हुआ जो वैष्णव धर्मावलम्बी प्रतीत होता है। इसी प्रकार ऋषभदत्त का उदाहरण यह स्पष्ट करता है कि वह जैन धर्म के सिद्धान्तों की ओर आकर्षित हुआ जो उसके नाम से स्वतः सूचित होता है। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि तित्थोगाली एवं तिलोयपण्णत्ति के रचनाकारों ने जैन धर्म से प्रभावित इस प्रभावशाली शक नरेश को वीर निर्वाण से समीकृत किया हो। ये जैनाचार्य कुषाणवंशीय कनिष्क को वीर निर्वाण से क्यों सम्बन्धित करेंगे जो जैन धर्म से अत्यन्त अल्प परिचित हो तथा शैव एवं बौद्ध धर्म से ज्यादा प्रभावित हो। कनिष्क की मुद्राएँ यह संकेत करती हैं कि वह भारतीय धर्मों में शैव एवं बौद्ध धर्म से ज्यादा प्रभावित था और बौद्ध धर्म के विकास में तो उसने विशेष योगदान दिया। महावीर के निर्वाण से सम्बन्धित विभिन्न साक्ष्यों की हमने समालोचना की है। जैन . धर्म के अन्त: साक्ष्य और उसकी पट्टावलियाँ, प्लूटार्क और जस्टिन के यूनानी साक्ष्य चन्द्रगुप्त मौर्य एवं अशोक से सम्बन्धित बौद्ध साक्ष्य - सभी एक निर्णायक निष्कर्ष की ओर इंगित करते हुए प्रतीत होते हैं कि महावीर का निर्वाण ४८१ ई० पू० में एवं महात्मा बुद्ध का निर्वाण उनके १४ वर्ष पहले ४९५ ई० पू० में हुआ। सन्दर्भ १. वीरनिर्वाण संवत और जैन काल गणना, लेखक – मुनि कल्याण विजय प्रका० क० वि० शास्त्र समिति, जालौर, वि० सं० १९८७, पृष्ठ १-५। २. “एवं मे सुतं। एक समयं भगवा सक्केसु विहरति वेधञा नाम सक्या तेस अम्बवने पासादे। तेन खो पन समयेन निगण्ठो नाटपुत्तो पावायं अधुनाकालङ्कतो होति। तस्स कालङ्किरियाय भिन्ना निगण्ठा द्वेधिकजाता भण्डनजाता कलहजाता विवादापन्ना अञ्जमजे मुखसत्तीहि वितुदन्ता विहरंति" दीघनिकाय, पासादिकसुत्तं ६/१/१ ३. सागर जैन विद्याभारती, भाग प्रथम, पृ० २५८, लेखक - डॉ० सागरमल जैन, प्रकाशक - पार्श्वनाथ शोधपीठ, वाराणसी, १९९४ । www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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