Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 74
________________ ७० : अमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५ है। इनकी साधना पर उनके धर्म का प्रासाद खड़ा है। इनका इतना महत्त्व है कि इनके नाम से दिगम्बर परम्परा में प्रति वर्ष दशलक्षणपर्व मनाया जाता है। जैन ग्रन्थों में इन दश धर्मों के स्वरूप को बड़े ही सरल ढंग से समझाने का प्रयास किया गया है। फिर भी जनसामान्य को इनके बारे में अधिक जानकारी नहीं है। श्री राजमल पवैया ने इस दिशा में सम्यक् प्रयास करके पद्य रूप में दश धर्मों के स्वरूप को प्रस्तुत किया है। आशा है कि साधारण जन इससे दशधर्म की अवधारणा को समझकर धार्मिक आचरण में प्रवृत्त होंगे और इस प्रकार समाज में धर्म की प्रभावना होगी। - डॉ० रज्जन कुमार पुस्तक - श्रीपञ्चास्तिकायविधान, लेखक - श्री राजमल पवैया, प्रकाशन - तारादेवी पवैया ग्रंथमाला, ४४, इब्राहिमपुरा, भोपाल, संस्करण - प्रथम (१९९५), मूल्य - १६.०० रुपये। आचार्य कुन्दकुन्दविरचित पञ्चास्तिकाय एक ऐसा आध्यात्मिक ग्रन्थ है, जो जैनदर्शन की द्रव्य-व्यवस्था एवं पदार्थ-व्यवस्था का संक्षेप में प्राथमिक परिचय देता है। जिनागम में प्रतिपादित द्रव्य-व्यवस्था एवं पदार्थ-व्यवस्था की सम्यक् जानकारी बिना जैन साधना में प्रवेश पाना सम्भव नहीं है। यह ग्रन्थ दो भागों में बँटा हुआ है। प्रथम भाग में षडद्रव्य-पञ्चास्तिकाय का वर्णन है और द्वितीय भाग में नवपदार्थपूर्वक मोक्षमार्ग का निरूपण है। इस तरह पञ्च-अस्तिकायों, षट्-द्रव्यों एवं नव-पदार्थ की व्याख्या करने के कारण प्रस्तुत ग्रन्थ का जैन दर्शन विशेष रूप से जैन तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त श्री राजमल पवैया जी ने पञ्चास्तिकाय की विषय-वस्तु को सामान्य पद्यात्मक रूप में प्रस्तुत करके बड़ा ही स्तुत्यपूर्ण कार्य किया है। इससे, प्राकृत भाषा से अनभिज्ञ पाठक भी जैन दर्शन के हार्द को समझ सकेगें। ऐसा विश्वास किया जा सकता है कि इस ग्रन्थ से जनसामान्य विशेष रूप से कर्मकाण्ड से जुड़े हुए लोगों में भी जैन दर्शन के अध्ययन में रुचि अवश्य जागृत होगी। - डॉ० रज्जन कुमार पुस्तक - श्रीनियमसारविधान, लेखक - श्री राजमल पवैया, प्रकाशक - तारादेवी पवैया ग्रंथमाला, ४४, इब्राहिमपुर, भोपाल, संस्करण - प्रथम (वीर निर्वाण संवत् । २५२१ ), मूल्य - १८.०० रुपए। ___आचार्य कुन्दकुन्द की प्रमुख रचनाओं में नियमसार का बहुत अधिक महत्त्व है। इसमें जैन दर्शन की मान्यताओं का विवेचन बड़े ही आकर्षक शैली में किया गया है। ऐसी धारणा है कि आचार्यप्रवर ने इस ग्रंथ की रचना आत्मानुभूति से प्रेरित होकर की थी। यद्यपि नियमसार का प्रतिपाद्य विषय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्चारित्र ही है फिर भी इसमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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