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६९ : अमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५
सात द्वारों से सात गुणों का वर्णन किया गया है -
(१) विनय गुण, ( २ ) आचार्य गुण, ( ३ ) शिष्य गुण, ( ४ ) विनयनिग्रह गुण, ( ५ ) ज्ञान गुण, (६ ) चारित्र गुण और (७ ) मरण गुण।
विषयवस्तु की दृष्टि से प्रस्तुत प्रकीर्णक एक अध्यात्मसाधनापरक प्रकीर्णक है। इसमें मुख्य रूप से गुरु-शिष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों एवं शिष्य को वैराग्य की दिशा में प्रेरित करने वाले उपदेशों का संकलन है, जो इस ग्रन्थ की आध्यात्मिक महत्ता को ही स्पष्ट करता
__ डॉ० सुरेश सिसोदिया ने प्रथम बार इसे हिन्दी अनुवाद के साथ प्रस्तुत किया है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ० सिसोदिया ने चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक का अन्य आगम ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक विवरण देते हुए जो भूमिका लिखी है, उससे यह कृति उपयोगी बन गई है।
__ - डॉ० अशोक कुमार सिंह पुस्तक - महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक, लेखक - डॉ. सुरेश सिसोदिया, सम्पादक - प्रो० सागरमल जैन, प्रकाशक - आगम, अहिंसा-समता एवं प्राकृत संस्थान (ग्र० मा० सं० ७), पद्मिनी मार्ग, उदयपुर ( राजस्थान ), १९९२, आकार - डिमाई पेपरबैक, पृष्ठ - ५६+४७, मूल्य - ३५ रुपये मात्र।
महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक प्राकृत भाषा की एक पद्यात्मक रचना है। इसका सर्वप्रथम उल्लेख नन्दीसूत्र एवं पाक्षिकसूत्र में प्राप्त होता है। दोनों ही ग्रन्थों में आवश्यक-व्यतिरिक्त उत्कालिक श्रुत के अन्तर्गत इसका उल्लेख मिलता है।
विषय-वस्तु की दृष्टि से महाप्रत्याख्यान-प्रकीर्णक साधनाप्रधान ग्रन्थ है। इसमें मुख्य रूप से समाधिमरण तथा उसकी पूर्व प्रक्रिया का निर्देश उपलब्ध होता है। प्रस्तुत ग्रन्थ की कुछ गाथाएँ ऐसी हैं जो साधक को समाधिमरण ग्रहण करने की प्रेरणा देती हैं। कुछ अन्य गाथाएँ ऐसी भी हैं जो आलोचना आदि का निर्देश करती हैं। वस्तुतः वे समाधिमरण की पूर्व प्रक्रिया के रूप में ही हैं। शेष अन्य गाथाओं का प्रयोजन साधक को समाधिमरण की स्थिति में अपनी मनोवृत्तियों को किस प्रकार रखना चाहिए, इसका निर्देश करना है।
ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्रो० सागरमल जैन एवं डॉ० सिसोदिया ने महाप्रत्याख्यान 'प्रकीर्णक का अन्य आगम-ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक विवरण देते हुए विस्तृत भूमिका लिखी है, जिससे यह ग्रन्थ उपयोगी एवं संग्रहणीय बन गया है।
पुस्तक - श्री दशलक्षणधर्मविधान, लेखक - श्री राजमल पवैया, प्रकाशक - तारादेवी पवैया ग्रन्थमाला, ४४, इब्राहिमपुरा, भोपाल, संस्करण - प्रथम ( १९९४ ), मूल्य - ५.०० रुपये। जैन परम्परा में धर्म के दश लक्षण बताए गए हैं। उन्हें ही दशलक्षणधर्म कहा जाता For Private & Personal Use Only
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