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श्रमण / अक्टूबर दिसम्बर / १९९५
हाईयपुरीयगच्छे सूरियों वीरभद्र नामा इति ।
तस्य शिष्याय लिखिता 'जसेन' गणिनेमिचन्द्राय ॥
गाथा में 'इति' शब्द केवल पादपूर्ति के लिये प्रयुक्त है। इसका अन्वय यह है हाईयपुरीयगच्छे यो वीरभद्रनामा सूरिस्तस्य शिष्याय गणिनेमिचन्द्राय 'जसेन' ( यशोनाम्ना केनचिद्विदुषा ) लिखिता ।
इस अन्वित वाक्य में कोई भी आर्थिक गतिरोध नहीं है। यहाँ 'नेमिचन्दस्स' ( नेमिचन्द्रस्य ) में ( षष्ठी शेषे अ० २ / ३ / ५० के अनुसार ) शेषार्थक षष्ठी मान कर भी व्याख्या की जा सकती है। उस दशा में भी 'जस' ( यश ) नेमिचन्द्र से सम्बन्धित लेखन- व्यापार का कर्ता सिद्ध होता है। प्राकृत में षष्ठी का चतुर्थ्यर्थक होना नितान्त स्वाभाविक है। अतः गाथा का विशुद्ध एवं स्पष्ट अर्थ यह होगा - हाईयपुरीय गच्छ में जो वीरभद्र नामक सूरि हैं, उनके शिष्य नेमिचन्द्र गणि के लिये 'जस' ( यश ) ने लिखा ।
श्री नरसिंह भाई ईश्वर भाई पटेल ने प्रसिद्ध जर्मन विद्वान लायमेन के द्वारा जर्मन भाषा में अनूदित 'तरंगलोला' के गुजराती अनुवाद में प्रस्तुत गाथा का यह अशुद्ध अर्थ दिया
है
“हाईय पुरीय गच्छ मां थयेला आचार्य वीरभद्रना शिष्य साधु नेमिचन्द्रगणिए आ कथानुं आलेखन कर्तुं छे।” अर्थात् हाईय पुरीय गच्छ में हुये आचार्य वीरभद्र के शिष्य साधु चन्द्रगणि ने इस कथा का आलेखन किया है।
इस अनुवाद में भी तृतीयान्त 'जसेण' की उपेक्षा कर दी गई है। अतः हमने ऊपर जो व्याकरण सम्मत व्याख्या प्रस्तुत की है, वही प्रामाणिक है। उक्त व्याख्या से यह नितान्त स्पष्ट है कि 'जस' ( यश - पूरा नाम यशोमित्र, यशोवर्धन, यशोदत्त कुछ भी हो सकता है ) नामक किसी विद्वान ने वीरभद्र के शिष्य नेमिचन्द्र के लिये तरंगलोला को लिपिबद्ध किया था। नेमिचन्द्र उक्त ग्रन्थ के रचयिता नहीं हैं।
हम यहीं एक अन्य भ्रम को भी निरस्त कर देना चाहते हैं। गाथा में 'लिहिया' ( लिखिता ) क्रिया है। उसका प्रयोग रचिता ( बनाया या रचा ) के अर्थ में नहीं है। रचना ( संस्कृत रच् धातु ) और लिखना (संस्कृत लिख धातु ) दोनों क्रियाओं के अर्थों में पर्याप्त अन्तर है। किसी कवि की रचना को अनेक व्यक्ति अपनी-अपनी लिपियों में लिख सकते हैं। परन्तु वे उस के रचयिता नहीं माने जाते हैं। गाथा में 'जसेण लिहिया' का अर्थ है 'जस' ( यश ) ने लिपिबद्ध किया । मुद्रण यन्त्र के आविष्कार के पूर्व विद्वानों के द्वारा विरचित ग्रन्थों के प्रचारार्थ उनकी प्रतिलिपियाँ कराई जाती थीं। प्रतिलिपिकर्ता ही लेखक कहलाते थे । अतः उस समय लेखक और रचयिता का अन्तर स्पष्ट था। आज मुद्रणयन्त्र के कारण लिपिकर्ता नहीं रह गये हैं । अतः लेखक और रचयिता – दोनों एकार्थक बन गये हैं। 'जस' ( यश ) तरंगलोला का लिपिकर्ता मात्र था, रचयिता नहीं । यह तथ्य आगे और स्पष्ट हो जायेगा।
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