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४० : अमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५
हैं – विषमता, विलासिता और क्रूरता। सन्तोष के सरोवर में ही सुख के फूल खिलते हैं, अत: नारी यदि चाहे तो पुरुष को अपरिग्रही बनाकर उपर्युक्त बुराइयों से भी बचा सकती है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आदि की अभिवृद्धि से आत्मा अपनी स्वाभाविकता के समीप पहुँचते हुए स्वयं धर्ममय बन जाती है। धर्म हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण शृंगार है जिसके बिना हमारा जीवन अधूरा है।८ महिलाएँ यदि चाहें तो परिवार के प्रत्येक : सदस्य को धार्मिक वातावरण के अनुरूप ढालकर संस्कृति को संवारने में अपना योगदान दे सकती हैं। जब परिवार का प्रत्येक सदस्य धर्म के संस्कार से संस्कारित हो जायेगा तो निश्चित ही समाज भी धार्मिक संस्कारों से परिपूर्ण हो जायेगा। आज भी हमारे देश में वे माताएँ हैं जिन्होंने आचार्य विद्यासागर, आचार्य चंदना जी, आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमति माताजी आदि जैन रत्नों को जन्म देकर बचपन में ही धर्म के संस्कार से संस्कारित कर संस्कृति की रक्षा के लिये अपने बच्चों को त्याग कर हमारे समाज के लिये बहुत बड़ा. त्याग किया है।९।।
अतः भूत व वर्तमान की बात को देखते हुए हम यह कह सकते हैं कि भविष्य में यदि धर्म और संस्कृति की रक्षा करनी है तो हमें सबमें धार्मिक संस्कार पैदा करना होगा जिससे जीवन के सभी क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार, उत्पीड़न, अन्धविश्वासों, कुरीतियों, दुष्ट प्रवृत्तियों आदि को निर्मूल कर ऐसे नवस्वर्णिम युग का नवनिर्माण हो सके, जिसमें आर्थिक असन्तुलन, राजनैतिक उत्पीड़न, सामाजिक कुरीतियों का कोई स्थान न हो।
सन्दर्भ १. बौद्ध और जैन आगमों में नारी जीवन, डॉ० कोमल चन्द्र जैन, पृ० १८४ २. नारी का चातुर्य, आर्यिका सुपार्श्वमती जी, पृ० १ ३. हिन्दुस्तान, नई दिल्ली, रविवारीय, १३ दिसम्बर, १९९२ ४. महिला जागरण, मार्च-अप्रैल, १९८२, पृ० ३० ५. जैन जगत्, दिसम्बर, १८८१, पृ० ९ ६. नारी वैभव, संकलन बा० ब्र० कु० आदेश जैन, पृ० ७३ ७. जैन जगत्, दिसम्बर, १९८१, पृ० २३ ८. जीवन साहित्य : मार्च ८२, पृ० ७६ ९. दि० जैन महासमिति, १५-१-९२, पृ० ६ १०. नारी वैभव, ना० ब्र० कु० आदेश जैन, पृ० ४२ । ११. वही, पृ० १०१ १२. वही, पृ० ४४ १३. जीवन साहित्य : अगस्त-सितम्बर १९८०, पृ० २९९ १४. वही, पृ० २९९-३०० १५. वही। १६. महिला जागरण, मई-जून १९८२, पृ० ८
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