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५० : श्रमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५
गुर्वावली, वंशावली, विज्ञप्तिपत्र, तीर्थमालाएँ एवं तीर्थस्तवन आदि से प्राप्त होने वाली ऐतिहासिक सूचनाओं को दर्शाया गया है। प्रशस्तियों के विषय प्राय: इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति होते थे। इन प्रशस्तियों में हरिषेण कृत समुद्रगुप्त की प्रयाग-प्रशस्ति, पुलकेशिन् द्वितीय का ऐहोल प्रशस्ति, कुमारपाल की वड़नगर-प्रशस्ति प्रमुख है। पट्टावलियों में गुरु-शिष्य परम्परा का वर्णन किया गया है। कल्पसूत्र में वर्णित पट्टावली जिसमें जैनसंघ का प्राचीनतम इतिह्मस है, का समर्थन मथुरा से प्राप्त प्रतिमालेखों से होने से यह पट्टावली प्रामाणिक कही जा सकती है। जिनपाल उपाध्याय के खरतरगच्छ-बृहद्-गुर्वावली से अर्णोराज, पृथ्वीराज, समरासिंह तथा कुतुबुद्दीन के बारे में भी सूचना मिलती है। दरबारी चारणों द्वारा राजघराने की वंशावलियाँ लिखी जाती थीं। वंशों के ये इतिहास पूरी प्रामाणिकता के साथ संरक्षित किये जाते थे। जैन
आचार्यों को भेजा गया निमन्त्रण पत्र विज्ञप्ति पत्र (विनति पत्र ) कहलाता था। इन विज्ञप्ति पत्रों से उस काल के राजा, सम्बन्धित नगर आदि के विषय में जानकारी मिलती है। इनमें सांस्कृतिक ब्योरा होने से सामाजिक इतिहास की दृष्टि से ये विशेष उपयोगी हैं। तीर्थमालाओं में जैन मुनियों ने धर्म यात्राओं के विवरण लिखे हैं। इनमें विविध तीर्थों का इतिहास और उससे सम्बन्धित अन्य सूचनाएँ होती हैं। आचार्य मदनकीर्ति कृत 'शासन चतुनिशिका ( १३ वीं शती) में धारा के परमार नरेश जैतुंगिदेव के समय मालवा पर हुए मुस्लिम आक्रमण का उल्लेख मिलने से इसका ऐतिहासिक दृष्टि से भी महत्त्व है।
'अभिलेखीय स्रोतों में उपलब्ध ऐतिहासिक सूचनाएँ' नामक छठे अध्याय में पुरातात्त्विक सामग्री -- शिलालेख, प्रतिमालेख और विविध प्रकार के अभिलेखों का ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण कर उनका साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर मूल्यांकन किया गया है। जैन अभिलेखों में प्रायः समकालीन घटनाओं का उल्लेख होने तथा परिवर्द्धन-परिवर्तन कम होने से इनकी प्रामाणिकता में सन्देह कम किया जा सकता है। ये अभिलेख विभित्र अवसरों पर उत्कीर्ण कराए गये हैं, जिसके आधार पर इन्हें निम्न वर्गों में रखा जा सकता है(१) ऐतिहासिक लेख या राजनैतिक अभिलेख, (२) प्रतिमालेख, (३) मन्दिर व स्मारक सम्बन्धी, ( ४ ) तीर्थयात्रा या धर्मयात्रा सम्बन्धी और ( ५ ) अनुदान सम्बन्धी एवं विविध लेख।
इन जैन अभिलेखों से भारतीय इतिहास की महत्त्वपूर्ण सामग्री मिलती है। कुछ अभिलेख तो इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि उनके अभाव में कुछ राजवंशों एवं राजाओं का अस्तित्व ही समाप्त हो जायेगा। कच्छघातों के ग्वालियर और दूबकुण्ड शाखाओं तथा राष्ट्रकूटों के हाथुण्डी शाखा के इतिहास के एकमात्र स्रोत जैन अभिलेख ही हैं। दुबकुण्ड से प्राप्त जिनमन्दिर शासनपत्र में कच्छपघयत वंश के राजाओं का परिचय मिलता है। इसी प्रकार जैन सम्राट खारवेल तो अपने हाथीगुफा अभिलेख के द्वारा ही जाना जाता है। इस अभिलेख में चेदिवंशीय खारवेल के कुमारावस्था (१५ वर्ष तक ) के बाद ९ वर्ष तक युवराज की भाँति
शासन करने का उल्लेख है। २४ वें वर्ष में सिंहासनारूढ़ होने का वर्णन है। इसके बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only
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