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५१ : श्रमण/अक्टूब-दिसम्बर/१९९५
राज्याभिषेक के प्रथम वर्ष से लेकर १३ वें वर्ष तक की उसकी विजयों एवं अन्य कार्यों का वर्ष दर वर्ष वर्णन किया गया है। इतना ब्यौरेवार वर्णन अन्यत्र नहीं मिलता है। अन्य महत्त्वपूर्ण अभिलेखों में चालुक्य नरेश पुलकेशिन् द्वितीय का रविकीर्ति रचित शिलालेख, हाथुण्डी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुर अभिलेख, जयमंगलसूरि कृत चाचिंग-चाहमान का सुन्धापर्वत अभिलेख तथा कक्क का घटियाला प्रस्तर लेख प्रमुख है। इन अभिलेखों से गंग, चालुक्य, राष्ट्रकूट, चोल, चेदि, होयसल, कच्छपघात आदि राजवंशों का परिचय प्राप्त होता है, साथ ही सांस्कृतिक अवस्था का भी परिचय मिलता है। मथुरा से प्राप्त अभिलेख जैन धर्म के इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
जैन-इतिहासकार' नामक सातवें अध्याय में सर्वप्रथम इतिहास की प्राचीन और नवीन अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हुए यह बतलाने का प्रयास किया गया है कि अन्य प्राचीन भारतीय लेखकों की तरह जैन रचनाकार भी इतिहास सम्बन्धी भिन्न अवधारणा के चलते वर्तमान में समझा जाने वाला इतिहास-ग्रन्थ तो नहीं लिखे किन्तु उनके ग्रन्थों से पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त होती है। इसलिए वे इतिहासलेखन के पर्याप्त प्रामाणिक स्रोत अवश्य हैं। जैन इतिहासकारों ने अपनी रचनाओं में प्राय: समय और स्थान का उल्लेख किया है। इसी सन्दर्भ में उन्होंने कुछ ग्रन्थों में तत्कालीन प्रमुख राजाओं का भी वर्णन किया है, जो उनके इतिहास-बुद्धि का परिचय देते हैं। इस अध्याय में सात प्रमुख इतिहासकारों का वर्णन किया गया है जो इस प्रकार है - भद्रबाहु ( कल्पसूत्र ), जिनसेन (हरिवंशपुराण), यतिवृषभ (तिलोयपण्णत्ति ), हेमचन्द्र ( परिशिष्टपर्वन् व द्वयाश्रयकाव्य ), प्रभाचंद ( प्रभावकचरित ), मेरुतुंग (प्रबन्धचिन्तामणि व थेरावली) और राजशेखर ( प्रबन्धकोश) ।
___अन्तिम आठवाँ अध्याय उपसंहार के रूप में है जिसमें पूर्ववर्ती अध्यायों की सामग्री को एक साथ रखकर उसका मूल्यांकन किया गया है। निष्कर्ष रूप में हमने यह पाया कि जैन स्रोत जैनधर्म के इतिहास, भारत के सामान्य इतिहास की विश्वसनीय सूचना तो देते ही हैं, साथ ही कुछ क्षेत्रों में तो ये इतने महत्त्वपूर्ण हैं कि इनके अध्ययन के बिना इतिहास ही अधूरा रह जाता है। उदाहरणस्वरूप -
१. उज्जयिनी पर शकों के आक्रमण की सूचना देने वाले साहित्यिक स्रोत जैन ग्रंथ ही हैं। कालकाचार्य कथानक, निशीथचूर्णि, व्यवहारभाष्य ग्रंथों से ज्ञात होता है कि उज्जयिनी के शासक गर्दभिल्ल ( महेन्द्रादित्य ) से अपनी बहन सरस्वती के अपमान का बदला लेने के लिए कालकाचार्य पारसकूल (पर्शिया ) के सम्राट को उज्जयिनी पर आक्रमण के लिए बुलाया। युद्ध में गर्दभिल्ल की पराजय हुई और उज्जयिनी पर शकों का राज्य हो गया। जिसका काल चार वर्षों तक रहा।
२. इसी प्रकार सुकृत-संकीर्तन पहला ऐतिहासिक कान्य है जिसमें चावडावंश का वर्णन है। जिसका समर्थन कुमारपाल की बड़नगर-प्रशस्ति से भी होता है।
*शोष-अध्येता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ Jain Education International
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