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५८ : प्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९५
विषय की दृष्टि से भी इसकी प्राचीनता की पुष्टि होती है।
उत्तर कालीन श्वेताम्बर विद्वानों में यह रचना बड़ी लोकप्रिय रही है। जिनदासभद्रगणि क्षमाश्रमण ने (६१० ई० ) विशेषणवती में वसुदेवचरियं का उल्लेख किया है। आवश्यकचूर्णि में वसुदेवहिंडी का उल्लेख करते हुए प्रसत्रचन्द्र, वल्कलचीरी, धम्मिलहिण्डी के कथानक प्रस्तुत किये हैं। हरिभद्रसूरि और मलयगिरि ने वसुदेवहिंडी का उल्लेख किया है। समराइच्चकहा के बहुत से कथानक वसुदेवहिण्डी से प्रभावित हैं। हरिषेण के बृहत्कथाकोष और जिनसेन के हरिवंश पुराण में वसुदेवहिंडी के कई कथानक आये हैं। ग्यारहवीं शती के विद्वान वादिवेताल शान्तिसूरि ने उत्तराध्ययन वृत्ति में अगड़दत्त कथानक का उल्लेख किया है।४ ग्रन्थ परिचय
प्राकृत के पण्डित मुनि चतुरविजय और मुनि पुण्यविजयजी ने विभिन्न जैन-भण्डारों की १२ हस्तलिखित प्रतियों के आधार पर वसुदेवहिंडी का सम्पादन किया है फिर भी यह कृति पूर्ण नहीं हो पाई। प्रियंगुसुन्दरी लम्ब और केतुमति लम्ब सबसे अधिक विकृत हैं, महत्त्वपूर्ण उन्नीस और बीसवाँ लम्ब अनुपलब्ध हैं। ग्रन्थ का उपसंहार भी नहीं है। बहुत सी बाह्य सामग्री का भी समावेश हो गया है। छ: अधिकारों में धम्मिलहिण्डी का उल्लेख नहीं है। डॉ० जगदीशचन्द्र जैन इसे प्रक्षिप्त मानते हैं। उनके विचार में इस अधिकार का समावेश बाद में हुआ। बीच-बीच में कई अस्पष्टता और पाठ भेद भी है।५ वसुदेवहिंडी में अन्धक-वृष्णि वंश के महाराज वसुदेव की कथा का पल्लवन है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में लिखी गई गद्यात्मक रचना है, बीच-बीच में पद्य भी हैं, कहीं-कहीं गद्य-पद्य-मिश्रित भी हो गये हैं। इसमें ग्यारह हजार श्लोक और २९ लम्बक हैं। १९, २० लम्बक अनुपलब्ध हैं और उपसंहार भी नहीं है। वसुदेवहिंडी मध्यमखण्ड के ७१ लम्ब १७ हजार श्लोकों में पूर्ण हुये हैं। ७१ लम्बों को चार भागों में विभाजित किया गया है - प्रथम खण्ड में प्रभावती लम्ब है, द्वितीय खण्ड ४४ लम्ब तक है, तृतीय ४५ से ५७ तक तथा चतुर्थ ५७ से ७१ तक है। इसमें आचार्य ने अपनी कल्पना प्रधान रोचक शृंगारिक शैली का परिचय दिया है। अपनी रचना के प्रारम्भ में आचार्य ने स्वीकार किया है कि लौकिक श्रृंगार कथा की प्रशंसा को न सहन करते हुये आचार्य के समीप निश्चय करके प्रवचन के अनुराग से आचार्य के आदेश से इसकी रचना की है। आचार्य ने इसे गुरु-परम्परागत मानकर, लता-विज्ञान की उपमा देते हुये इसे धर्म, अर्थ, काम से पुष्पित, फल-भार से नमित, शृंगार के ललित किसलय से व्याप्त, सुमन की शोभा से आह्लादित मधुकरों रूपी विविध गुणों से सेवित कहा है। यह रचना भी महाराष्ट्री प्राकृत में है। आचार्य ने इसे दृष्टिवाद से उद्धृत
और गण्डिकानुयोग पर आधारित कहा है। इसमें विद्याधरों से सम्बन्धित बहुत सी महत्त्वपूर्ण सूचनायें दी गई हैं। विद्याधरों के ६४ निकायों का उल्लेख है।
वसुदेवहिंडी का महत्त्व इसलिये भी अधिक है कि यह महाकवि गुणाढ्य की पैशाची भाषा में रचित विलुप्त वृहत्कथा के मूल स्वरूप का दिग्दर्शन कराती है। पाश्चात्य विद्वान डॉ० एल० आल्सडोर्फ ने इसे बृहत्कथा का जैन रूपान्तर कहा है।२७ गुणाढ्य की बृहत्कथा
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