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४६ : प्रमण/अक्टूबसदिसम्बर/१९९५
अध्ययन में आंशिक रूप से उपयोग तो कुछ लेखकों और शोधकर्ताओं ने अवश्य किया है यथा -- देवीप्रसाद मिश्र ने जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन, डॉ० हरिहर सिंह पश्चिम भारत के जैन मन्दिरों पर और डॉ० कमल जैन ने जैन स्रोतों के आधार पर आर्थिक इतिहास लिखा है। इसी क्रम में डॉ० कुमुद गिरि ने जैन महापुराणों के कलापक्ष पर तथा डॉ० श्रीनारायण दूबे ने जैन अभिलेखों पर इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। इसके अतिरिक्त पुराण, चरित, प्रबन्ध आदि के स्वतंत्र ग्रन्थों पर भी कार्य हुआ है, किन्तु ये सभी प्रयास किन्हीं विशिष्ट पक्षों को लेकर ही हुए हैं। समग्र जैन ऐतिहासिक स्रोतों का एकत्र अध ययन होना अभी भी शेष था। दूसरे अनेक ऐतिहासिक स्रोत अभी भी ऐसे हैं जिनके अध्ययन का प्रयत्न ही नहीं हुआ है जैसे - विज्ञप्तिपत्र आदि। इस प्रकार जैन ऐतिहासिक स्रोतों के अध्ययन, विश्लेषण और प्रमाणीकरण की आवश्यकता अभी बनी हुई थी। इसीलिए हमने इस दिशा में शोध-कार्य करने का विनम्र प्रयत्न किया है।
जैन ऐतिहासिक स्रोतों में आगम, आगमिक व्याख्या ( नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका आदि ), पुराण एवं चरित काव्य, प्रबन्ध, ग्रन्थप्रशस्ति, प्रशस्ति, पट्टावली, वंशावली, विज्ञप्तिपत्र और अभिलेख महत्त्वपूर्ण हैं। अन्य भारतीय ऐतिहासिक स्रोतों की तरह ही जैन परम्परा के ग्रंथ भी इतिहास की आधुनिक अवधारणा की कसौटी पर पूर्णतया खरे नहीं उतरते क्योंकि उनमें इतिहास के साथ-साथ कल्पना का भी अंश होता है। इसी कारण आधुनिक पाश्चात्य विद्वानों ने यह धारणा बना ली कि भारतीय इतिहास-लेखन में रुचि नहीं रखते थे, किन्तु इसका कारण हमारी इतिहास की भिन्न अवधारणा है। आज हम इतिहास को राजनैतिक इतिहास ही मानते हैं, धार्मिक इतिहास को इतिहास नहीं मानते। भारतवर्ष में इतिहास को पंचम वेद माना गया है और कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजाओं के लिए इतिहास के अध ययन को उनकी दिनचर्या का अनिवार्य अंग बताया है। यह अवश्य है कि हमारे ऐतिहासिक या पौराणिक ग्रन्थों में काव्य-तत्त्वों या कल्पना-तत्त्व की प्रधानता रही और ऐतिहासिक तथ्य गौण रहे। प्रायः लेखक अपने आश्रयदाताओं की अतिशयोक्तिपूर्ण विरुदावली बखानते थे और ऐतिहासिक तथ्यों की उपेक्षा करके भी प्रतिपक्षी को अपने नायक की तुलना में हीन बताते, जिसके कारण कहीं-कहीं ऐतिहासिक तथ्यों, व्यक्तियों और तिथियों में व्यतिक्रम भी मिलता
अन्य परम्पराओं के समान जैन परम्परा के स्रोतों में भी यह प्रवृत्ति मिलती है। उदाहरण के रूप में यदि महावीर के जीवन-चरित को ही लिया जाय तो आचाराङ्ग के प्रथम श्रुतस्कन्ध से लेकर कल्पसूत्र, नियुक्तियों, भाष्य और चूर्णियों तक आते-आते उसमें कल्पना
और अलौकिकता का प्रवेश इतना ज्यादा हो गया कि वे अलौकिक बन गये और उनका ऐतिहासिक व्यक्तित्व गौण हो गया। किन्तु मात्र इन्हीं कारणों से समस्त जैन ऐतिहासिक स्रोतों को कपोल-कल्पित और अप्रामाणिक कहकर अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
जैनों के पास उनकी स्वयं की इतिहास सम्बन्धी अवधारणा है जिसके आधार पर
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