Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 51
________________ ૪૭ : श्रमण / अक्टूबर-दिसम्बर /१९९५ उन्होंने अपने विस्तृत वाङ्मय में इतिहास सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ प्रदान की हैं। कुछ ग्रन्थों में अति प्राचीनकाल के सार्वभौम सम्राटों का नाम और काल बताया गया है तथा अनेक प्राचीन मनुओं का भी उल्लेख किया गया है जो अधिकांश हिन्दू पुराणों में उल्लिखित सूचनाओं से मेल खाता है। प्राचीन जैन - परम्परा संसार तथा समाज के चक्रीय उत्थान-पतन की प्रक्रिया को स्वीकार करती है जिसमें उत्थान और पतन दोनों स्थान पाते हैं। उन्होंने विभिन्न कल्पों को आरों में विभक्त करके उत्थान और पतन का इतिहास दर्शाया है। किसी अतिमानवीय सत्ता में विश्वास न होने से वे उस प्रक्रिया को स्वतः गतिशील मानते हैं। वे भारत का इतिहास उस काल से प्रारम्भ करते हैं जब मानव जीवन में कोई सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक व्यवस्था नहीं थी । लोग हर प्रकार के धार्मिक, सामाजिक, नैतिक या राजनीतिक आग्रहों से मुक्त थे और जीवनयापन के लिए पूर्णतया प्रकृति की देन ( कल्पवृक्षों ) पर आश्रित थे। उस आदर्श व्यवस्था में कालान्तर में अनेक विकृतियाँ आ गयीं। तब तीर्थङ्कर ऋषभदेव ने पुनः सामाजिक व्यवस्था स्थापित की। उन्होंने कृषि, लेखन, युद्ध, प्रशासन, राज्यव्यवस्था आदि के क्षेत्रों में मनुष्य का मार्गदर्शन किया। उनके पुत्र चक्रवर्ती भरत के नाम पर यह देश भारत कहलाया। यहीं से जैन लोग नवीन युग का प्रारम्भ मानते हैं। जैन ऐतिहासिक स्त्रोत की महत्त्वपूर्ण शाखाएं जैसे - आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य, पुराण, चरित-ग्रंथ, ऐतिहासिक काव्य, प्रबन्ध, प्रशस्ति, अभिलेख आदि में जो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक सामग्री बिखरी हुई है वह अलग-अलग स्वतंत्र शोधों का विषय है और एक ही शोध-प्रबन्ध में आगम काल से लेकर आज तक के इन तमाम ऐतिहासिक स्रोतों को समेटना सम्भव नहीं था । इस लिये समग्र ऐतिहासिक स्रोतों का एक संश्लिष्ट चित्र प्रस्तुत करने के लिए जहाँ एक ओर यह आवश्यक था कि इन सबका एकत्र रूप से अध्ययन किया जाय और भारतीय इतिहासलेखन में जैन स्रोतों के महत्त्व को रेखांकित किया जाय वहीं यह भी ध्यान रखना आवश्यक था कि शोध-प्रबन्ध में तथ्यों के विश्लेषण और प्रमाणीकरण के लिए अवकाश रहे, वह केवल संकलन होकर न रह जाय। इसलिए हमने अपने अध्ययन की सीमा १४ वीं शताब्दी ईस्वी तक ही रखी है। वस्तुतः यदि देखा जाय तो आगमों से लेकर जैन प्रबन्धों के काल तक अर्थात् दूसरी-तीसरी शती से १४-१५ वीं शती तक ही महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत उपलब्ध होते हैं। अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से इस विपुल सामग्री को इस शोध-प्रबन्ध में निम्नलिखित आठ अध्यायों में विभक्त किया गया है। 'ऐतिहासिक अध्ययन के प्रमुख जैन स्रोत' नामक प्रथम अध्याय में समस्त जैन स्त्रोतों को दो प्रमुख वर्गों में बाँटा गया है - ( १ ) साहित्यिक स्रोत और ( २ ) पुरातात्त्विक स्रोत । पुनः साहित्यिक स्रोतों को आगम, आगमिक व्याख्या साहित्य (नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य, टीका ग्रंथ आदि ), पुराण एवं चरित-काव्य, प्रबन्ध-साहित्य, पट्टावली ( नंदीसंघ पट्टावली आदि ) स्थविरावली ( हिमवंत आदि ), प्रशस्ति, ग्रंथ-प्रशस्ति विज्ञप्ति - पत्र, तीर्थमालाएँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org ,

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