Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 48
________________ MPIIIIIIIIIIIIIIMill श्रमण ऐतिहासिक अध्ययन के जैन स्रोत और उनकी प्रामाणिकता : एक अध्ययन (शोध सारांश) असीम कुमार मित्र भारतीय इतिहास के प्रमुख आधारभूत स्रोतों में ब्राह्मण और बौद्ध परम्परा के पश्चात् जैन परम्परा का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्रारम्भ में भारतीय इतिहास-लेखन के मुख्य स्रोत प्रायः ब्राह्मण परम्परा के ग्रंथ ही माने जाते रहे। जिन लेखकों ने प्रारम्भ में इतिहासलेखन का कार्य किया, उन्होंने प्रायः इसी परम्परा को आधार बनाया, जैसे - वेद, ब्राह्मण (शतपथ आदि ) ग्रन्थ, पुराण, रामायण, महाभारत और मनुस्मृति। इन लेखकों ने अपने कथ्य को प्रमाणित करने के लिए विदेशी यात्रियों के विवरणों और उनके ग्रंथों का उपयोग किया, जिसमें मेगस्थनीज, वर्नियर, ट्रेवर्नियर, ह्वेनसांग आदि के यात्रा-वृत्तान्त और अरबी-फारसी के कुछ ग्रंथ मुख्य हैं। श्रमण-परम्परा के ऐतिहासिक स्रोतों की ओर लेखकों का ध्यान प्रारम्भ में कम ही गया, किन्तु मौर्यकालीन इतिहास के लिए पालि में रचित बौद्ध-साहित्य की उपयोगिता के कारण कुछ लेखकों ने बौद्ध-परम्परा के ग्रन्थों का ऐतिहासिक स्रोत के रूप में उपयोग किया। महापंडित राहल जी की तिब्बत, चीन आदि देशों की यात्रा एवं वहाँ के तमाम ग्रंथों को भारत लाकर उनके अध्ययन-सम्पादन के प्रयासों के फलस्वरूप यहाँ के विद्वानों के समक्ष बौद्ध-स्रोतों के अध्ययन का नया द्वार खुला। उससे पूर्व तिब्बती साक्ष्यों का इतिहासलेखन में उपयोग करने वाले तारानाथ लामा ही एक प्रमुख प्रामाणिक व्यक्ति थे। बाद में अनेक लेखकों ने इस स्रोत का भरपूर उपयोग किया। जैन स्रोतों की ओर विद्वानों का ध्यान और विलम्ब से गया। उसके कई कारणों में एक प्रमुख कारण ग्रन्थ-भण्डारों में प्रवेश की समस्या रही, जो अब क्रमश: सरल होती जा रही है और परिणामस्वरूप इतनी सामग्री सामने आ चुकी है कि उसका वैज्ञानिक अध्ययन कर ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में प्रयोग अत्यन्त उपादेय होगा। इस विशाल साहित्य का प्रथम परिचय देने का श्रेय अंग्रेज विद्वान काबेल को है, जिसने सन् १८४५ में वररुचि के 'प्राकृत-प्रकाश' को सम्पादित कर प्रकाशित करवाया। तत्पश्चात् जर्मन विद्वान पिशेल और हर्मन-याकोबी ने विद्वत्तापूर्ण भूमिकाओं के साथ विमलसूरिकृत पउमचरिय, हरिभद्रकृत समराइच्चकहा, हेमचन्द्र के व्याकरण, परिशिष्ट-पर्वन् आदि ग्रन्थों के सम्पादित संस्करण प्रकाशित किये। इससे जैन ग्रन्थों के ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन की विपुल सम्भावना का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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