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श्रमण
यह कौन सा कालचक्र चल रहा है प्रभु !
भेड़ बकरियों की तरह पलते हुए लोग रात और दिन की मूल्यवत्ता खोकर
निशाचर की तरह
देश की आधी से अधिक आबादी रेंग रही है.
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बस स्टैण्डों पर
रेलवे स्टेशनों पर
पार्क में / पगडंडियों पर
ट्रेनों की गतिशीलता से जुड़कर
किस बेचैनी में भाग रही है
देश की आधी से अधिक आबादी !
कालचक्र
यह आपा-धापी
एक दूसरे को मात करके / पछाड़ करके / ताड़ करके
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भागने की बेचैनी में
कहाँ है समता का मूल्य ? कैसे लागू होगा
अहिंसा का सिद्धान्त ?
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डॉ. धूपनाथ प्रसाद *
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