Book Title: Sramana 1995 10
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 26
________________ २२ : अमण/अक्टूबर दिसम्बर/१९९५ की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत कर दी है। अतः तरगंलोला किसी अन्य कवि की स्वतन्त्र संक्षेपात्मक रचना नहीं है। 'देसीपयाई मोत्तुं' संक्षेप की पद्धति को सूचित करता हुआ इसी तथ्य को स्पष्ट करता है। संक्षेपक का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट है। वह विस्तृत एवं दुरूह किन्तु लोकमंगलकारिणी तरगंवतीकथा को सर्वथा विलुप्त हो जाने से बचाना चाहता था। जहाँ किसी ग्रन्थ के पूर्णतया नष्ट हो जाने की स्थिति आ गई हो वहाँ उसके कुछ ही अंशों को सुरक्षित कर देना एक श्लाघ्य प्रयत्न है और संक्षेपक ने वही किया। यदि वह स्वरचित गाथाओं में इस संक्षिप्त कृति को प्रस्तुत करता तब तो उसी के द्वारा तरगंवती की हत्या हो जाती। निस्सन्देह सखित्ततरंगवईकहा ( तरगलोला ) विस्तृत एवं दुर्बोध तरगंवती कथा का ही सामान्य जनोपयोगी संस्करण है, अन्यथा देशी पदों ( प्रान्तीय भाषा-वाक्यों ) को छोड़ कर संक्षेप करने की बात ही क्यों कही जाती। तरगंलोला एक संग्रह ग्रन्थ है। यह तथ्य एक अन्य गाथा में भी इंगित है - पाययटुं च निचइं धम्मकहं सुणह जइ ण दुब्बुद्धी । (१३वीं गाथा का पूर्वार्ध ) अर्थात् यदि पापबुद्धि नहीं है तो साधारणजनों के प्रयोजन वाली (पायय = प्राकृत साधारण मनुष्य, अट्ठ = अर्थ = प्रयोजन ) और संग्रहात्मक ( निचइं - यह निचय का स्त्रीलिंग रूप है, जैसे शिष्य का सिस्सी ) धर्मकथा को सुनो। इसमें जहाँ पादलिप्त के द्वारा रची हई गाथाओं से ही सखित्ततरंगवई ( तरंगलोला ) के स्वरूप संघटन की बात दुहरायी गई है। वहीं यह भी संकेत दिया गया है कि उक्त ग्रन्थ का प्रस्तुत आकार प्राकृत जनों के लिये है। गाथा में प्रयुक्त दुर्बुद्धि शब्द तरगवती के उपेक्षकों के प्रति संक्षेपक का आक्रोश व्यक्त करता है। यहाँ तक तो हमने अंतरंग प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि तरंगलोला पादलिप्त की ही रचना है। उसकी गाथायें तरंगवती से संगृहीत की गई हैं। अब इस तथ्य की पुष्टि के लिये एक बहिरंग प्रमाण भी प्रस्तुत है। प्रभावकचरित में यह प्राचीन गाथा आई है जिसमें तरंगलोला का रचनाकार पादलिप्त को बताया गया है - “सीसं कह विण फुट्ट जमस्स पालित्तयं हरंतस्स। जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई बूढा।।" अर्थात् जिसके मुखनिर्झर से तरंगलोला रूपी नदी निकली थी उस पादलिप्त का अपहरण करते हुये यमराज का शिर क्यों न फट गया। इस उद्धरण से यह भी सिद्ध होता है कि प्रभावकचरित के पूर्व प्राचीन काल में तरंगलोला नेमिचन्द्र या यश की रचना नहीं मानी जाती थी। पूर्वोल्लिखित अन्तरंग प्रमाण के अनुसार तरंगवई' के इर. क्षिप्ताकार से अरुचिकर विस्तृत वर्णन और विभिन्न देशी भाषाओं के वाक्यों को निकाल दिया गया है। 'देसीपयाई मोतुं' का यह आशय नहीं है कि संक्षेपक ने पादलिप्तरचित गाथाओं से प्राकृत के देशी शब्दों को निकाल कर उनके स्थान पर अपनी ओर से नये शब्द जोड़ दिये है। यदि ऐसा होता तो उपलब्ध तरंगलोला में सैकड़ों देशी शब्दों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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