________________
१९ : प्रमण/अक्टूबर-दिसम्बर/१९९५
तरंगलोला को तरंगवती का संक्षिप्त रूप माना जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि उसका यह संक्षेपण किस कोटि में आता है। ग्रन्थों के संक्षेप दो प्रकार के होते हैं -
१. किसी ग्रन्थ का सारांश स्वरचित वाक्यों में प्रस्तुत करना।
२. किसी ग्रन्थ के विस्तृत एवं दुरूह अंशों को निकाल कर उसी के मूल आकार को छोटा बना देना।
प्रथम के उदाहरण कथासरित्सागर और रत्नप्रभसूरिकृत संस्कृत कुवलयमाला हैं। द्वितीय का उदाहरण अनन्ताचार्य की चन्द्रापीडकथा है जिसमें एक भी शब्द बाहर से नहीं जोड़ा गया है। बाणभट्ट के ही वाक्यों में कादम्बरी की सम्पूर्ण कथा प्रस्तुत कर दी गई है। रामायण और महाभारत के संक्षिप्त संस्करण भी इसी कोटि में आते हैं।
अब देखना यह है कि तरंगलोला में संक्षेपण की कौन सी पद्धति अपनायी गई है। इस सम्बन्ध में स्वयं संक्षेपक के ही शब्दों को उद्धृत करना उचित है। संक्षेपक ने प्रारम्भिक गाथाओं में संक्षेपण के पूर्व की परिस्थिति और संक्षेपण के प्रयोजन का इस प्रकार उल्लेख किया है -
पालित्तएण रइया वित्थरओ तह य देसिवयणेहिं। नामेणा तरंगवई कहा विचित्ता य विडला य ।। ५ ।। कत्थयि कुलयाई मणोरमाइं अण्णत्थ गुविलजुयलाई। अण्णत्थ ( छ ) कलाई दुप्परिअल्लाइं इयराणं ।। ६ ।। न य सा कोइ सुणेइ ना पुण पुच्छेइ नेव य कहेइ।
विउसाण नवर जोगा इयरजणो तीए किं कुण उ ।। ७ ।। अर्थात् पादलिप्ताचार्य ने देशी वचनों में तरगंवती कथा की रचना की है। वह विस्तृत, विपुल और विचित्र है। उसमें कहीं मनोहर कुलक है, अन्यत्र गुविल युगल हैं और अन्यत्र छक्कल हैं जो अन्य जनों ( साधारण जन ) के लिये दुर्बोध हैं। न उसे कोई सुनता है, न कोई पूछता है और न कोई कहता है। वह केवल विद्वानों के योग्य है। इतरजन ( साधारणजन ) उससे क्या करें ?
संक्षेपक ने सोचा, यदि यही स्थिति रही तो साधारणजनों के कल्याणार्थ रची गई तरंगवती सर्वथा लुप्त हो जायेगी। अत: उसने उस अमूल्य कृति का साधारण जनोपयोगी संक्षिप्त रूप प्रस्तुत किया जो पादलिप्त ( पालित ) की रची हुई गाथाओं में ही उपनिबद्ध है। इसी का नाम तरंगलोला है। इस तथ्य का वर्णन संक्षेपक ने इस प्रकार किया है -
तो उच्चेजणं गाहाओ पालित्तएण रइयाओ ।
देसीपयाइ मोत्तुं संखित्ततरी कथा एसा ।। ८ ।। १. उसका नाम भी 'संखित्त तरंगवई' ( संक्षिप्त तरंगवती ) है। यह नाम बिल्कुल वैसे ही है जैसे संक्षिप्त वाल्मीकि रामायण या संक्षिप्त रामचरितमानस। For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International