Book Title: Sramana 1992 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 8
________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १८. वर्तमान काल के सुख-दुःख मिश्रित जीवन की उपेक्षा करके मरणोत्तर भावी पुनर्जन्म रूप से बचने की चिन्ता में योजना बद्ध रूप से सम्पूर्ण जीवन समाप्त कर देना हो। उसकी दृष्टि दर्शन की सार्थकता व्यक्ति को केवल मरने और पुनः न पैदा होने के लिए तैयार करने में नहीं अपितु सुख-शान्तिपूर्वक जीवन यापन करने का मार्ग बताने में है। कहने का आशय यही । कि मुक्ति केवल मरणोत्तर अवस्था (विदेह मुक्ति) नहीं है, प्रत्युत वह इसी जीवन में प्राप्त है और यही मोक्ष रूप चतुर्थ पुरुषार्थ है जिसकी समीचीनता के बारे में वर्तमान समय में सर्न व्यक्त किया जाता है। राग-द्वेष या कषायों से मुक्ति की बात उतनी सुगम एवं सामान्य नहीं जितनी यह कहने या सुनने में प्रतीत होती है। इसके लिए गहन साधना की आवश्यकता जैसा कि तीर्थकरों के जीवन से स्पष्ट है। हमारे पुरुष प्रधान समाज में नारी-शोषण की प्रथा प्राचीन है। वैदिक काल में उसी स्थिति मध्यकाल की अपेक्षा बेहतर अवश्य मानी जा सकती है, पर वह बहुत अच्छी थी, नहीं कहा जा सकता। शिक्षादि के क्षेत्र में अग्रणी जिन महिलाओं - गार्गी, मैत्रेयी आदि - नाम उदाहरण स्वरूप लिया जाता है, उन्हें अपवादस्वरूप ही माना जाना चाहिए। वर्तमान सी, में शिक्षा-प्रसार आदि के परिणामस्वरूप उनमें निश्चित रूप से जागति आयी है और उन स्थिति में सुधार भी हुआ है। वैधानिक रूप से उन्हें पुरुषों के समकक्ष भी रखा गया है.. व्यवहार में पुरुष उसे आज भी अपनी दासी ही समझना चाहता है। वैदिक धर्म में जहाँ उपास या उपासिका मात्र पुत्र-प्राप्ति की ही कामना रखते हैं, वहीं जैन-धर्म में पुत्र एवं पुत्री की प्रा हेतु समान रूप से प्रार्थना की गयी है। हिन्दू धर्म में धार्मिक दृष्टि से पुत्र महत्त्वपूर्ण माना में है किन्तु कर्म सिद्धान्त में आस्थावान् जैन-धर्म यह मानता है कि व्यक्ति की सद्गति पुत्र के नहीं प्रत्युत अपने द्वारा किये गये सत्कर्मों से होती है। अतः सन्तान द्वारा प्रतिपादित कर्मका पूर्वजों को प्रभावित नहीं करते। जैन-धर्म में भिक्षणी संघ की व्यवस्था महिलाओं के लिए एक ऐसा सुदृढ़ शरणस्थल र है, जिसके द्वार सभी वर्ग, जाति व वर्ण की महिलाओं का स्वागत करते हैं, जिसके फलस्वर सती-प्रथा जैसी वीभत्स कुप्रथा कभी अपना सिर नहीं उठा सकी। आज भी हमारे हिन्दू समाज में दहेज की बलिवेदी पर अपने को न्यौछावर करने वाली महिलाओं की संख्या में कमी नहीं जा रही है, जिसका एक मात्र कारण यही है कि दूसरों (पिता एवं पति) के घर के अतिरिका उनका स्वयं का कोई स्वतन्त्र आश्रय-स्थल नहीं होता परिणामस्वरूप उन्हें मौत का आलिंगा करना ही पड़ता है। जैन-धर्म का भिक्षुणी संघ एक ऐसा सशक्त सामाजिक प्रहरी सिद्ध हुआई जो दहेज-प्रथा आदि बुराइयों का प्रवेश समाज में निषिद्ध करता है। इस प्रकार भिक्षुणी संघने विधवा, परित्यक्ता एवं कुमारियों का रक्षा-कवच बनकर उन्हें पुरुष के शोषण एवं अत्याचार, का शिकार होने से बचाया है। आज भी जैन भिक्षुणियों की संख्या जैन भिक्षुओं से तीन गुनी अधिक है। इस प्रकार भिक्षुणी संघ ने न केवल नारी को सामाजिक उत्पीड़न एवं पुरुष के १. 'जइ णं अहं दारगं वा पयायामि तो णं अहं जायं य जाव अणुवुड्डेमित्ति।' ज्ञाताधर्मकथा 1, 2, 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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