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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९८२
है। प्रथम में योग एवं ध्यान की वैदिक, बौद्ध और जैन साधना पद्धतियों के विवरण के साथ ही साथ भारतीयेतर धर्मों की ध्यान एवं योग की साधना पद्धतियों का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय अध्याय में ध्यान साधना संबन्धी जैन साहित्य का विवरण है, उसमें पूर्व-साहित्य तथा अंग और अंग बाहय साहित्य के विवरण के साथ ही साथ आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्तियों, भाष्यों, चूर्णियों और टीकाओं का भी विवरण प्रस्तुत है। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा के षट्खण्डागम, भगवतीआराधना आदि तथा कुन्द-कुन्द के समयसार, नियमसार पंचास्तिकाय एवं प्रवचनसार की भी चर्चा है। साथ ही तत्त्वार्थ की टीकाओं यथा - तत्त्वार्थ-भाष्य, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक आदि को इसमें समाहित किया गया है। यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि आगमों, आगमिक साहित्य, तत्त्वार्थ और उसकी टीकाओं में ध्यान संबन्धी विवरण अल्प ही है। यदि साध्वी श्री जी तुलनात्मक दृष्टि से विवेचन करते हुए यह दिखाने का प्रयास करते कि ध्यान के विभिन्न पक्षों को लेकर इनमें किस प्रकार परिवर्तन हुआ है और उन पर अन्य परम्पराओं का प्रभाव कैसे हआ है -- तो इस कति का महत्त्व अधिक बढ़ जाता। कृति के तीसरे अध्याय में जैन साधना में ध्यान के स्थान का चित्रण है। इसमें तप के भेद-प्रभेदों की चर्चा के साथ-साथ ध्यान का उल्लेख हुआ है। चतुर्थ अध्याय विशेष रूप से जैन धर्म में ध्यान के स्वरूप का प्रतिपादन करता है जबकि पंचम् अध्याय में ध्यान के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख है। षष्टम् अध्याय मुख्य रूप से ध्यान के उपलब्धियों की चर्चा करता है, इस दृष्टि से इसे ध्यान के व्यवहारिक लाभों से जोड़ा गया है। ग्रन्थ के अन्त में कुछ परिशिष्ट भी दिये गये हैं। ग्रन्थ के प्रारम्भ में डॉ. सागरमल जैन की विस्तृत भूमिका ग्रन्थ के महत्त्व में अभिवद्धि करती है। इस ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें ध्यान को केन्द्र बनाकर सम्पूर्ण जैन साधना को उजार किया गया है। ग्रन्थ पठनीय एवं संग्रहणीय है।
परवार जैन समाज का इतिहास, लेखक एवं सम्पादक - सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्रकाशक श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन परवार सभा, मूल्य- 150/-, डिमाई 16 पेजी, 19921
यद्यपि जैन धर्म और जैन परम्परा के इतिहास के सन्दर्भ में पर्याप्त रुप से लिखा गया है किन्तु जहाँ तक जैन जातियों के इतिहास का प्रश्न है इस सन्दर्भ में अल्प सामग्री ही है। प्रस्तुत कति में परवार जैन समाज का इतिहास प्रस्तुत करके पं. फूलचन्द्र जी सिद्धान्त शास्त्री ने इस कमी को दूर किया है। वर्तमान में पोरवाल, पद्मावती-पोरवाल, परवार आदि अनेक जैन जातियाँ हैं जो मूलतः प्राग्वाट् नामक जाति के ही विभिन्न रुप हैं। यद्यपि परवार व पोरवार दोनों एक जाति के दो स्प हैं या दोनो स्वतंत्र जातियां हैं यह विवाद का विषय है। समान्यतया प्राग्वाट् या पोरवाल जाति श्वेताम्बर परम्परा में पायी जाती है, वहीं परवार जाति दिगम्बर परम्परा में पायी जाती है। यद्यपि पं. जी ने अत्यन्त परिश्रम पूर्वक परवार जाति के उद्भव व
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