________________
पुस्तक समीक्षा
विकास की खोज-बीन करने का प्रयत्न किया है. फिर भी ग्रन्थ के अध्ययन से ऐसा लगता है कि प्रामाणिक सामग्री के अभाव में उन्हें कहीं-कहीं अनुश्रुतियों से ही सन्तोष करना पड़ा है। पं. जी ने अनुश्रुतियों के आधार पर अथवा उनके आधार पर बनी पट्टावलियों को मान्यता देकर गुप्तिगुप्त आदि प्राचीन आचार्यों को भी परवार जाति से जोड़ने का प्रयत्न किया है जो कि प्रामाणिक नहीं माना जा सकता है। हम पं. जी के कथन से सहमत हैं कि अधिकांश वर्तमान जैन जातियां राजस्थान से ही निकली हैं।
प्रस्तुत कृति परवार जाति के इतिहास लेखन का प्रथम प्रयास है, इसलिए अभी उसमें परिवर्तन व परिवर्धन का पर्याप्त अवसर है, यह बात विद्वान लेखक व प्रकाशक ने भी स्वीकार की है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में पं. जगनमोहनलाल जी की भूमिका तथा द्वितीय खण्ड में नाथूराम प्रेमी जी का परवार जाति के इतिहास पर प्रकाश नामक आलेख भी ग्रन्थ के महत्त्व को बढ़ाते हैं। जहाँ तक प्रेमी जी के द्वारा लिखित अंश का प्रश्न है निश्चय ही वह एक शोधपूर्ण व सम्प्रदाय निरपेक्ष दृष्टि से लिखा गया अंश है, जबकि प्रथम खण्ड में पं. फूलचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने परवार जाति के इतिहास के संबन्ध में जो कुछ लिखा है, उसे इस युग में निश्चय ही दुर्भाग्य पूर्ण कहना होगा। उनके शब्दों में "सोरठिया परवार श्वेताम्बरों के इस माया-जाल से कभी नहीं निकल सके और उनका श्वेताम्बरीकरण होकर रहा" -- मन्दिर मार्गी श्वेताम्बरों की यह प्रवृत्ति इस समय भी चालू है। जहां उनका वश चलता है (दिगम्बर ) धर्म चिन्हों का श्वेताम्बरीकरण कर लेते हैं, यह क्या है ? यह आततायीपन नहीं तो और क्या है ? (पृ. 53 ) मैं यहाँ कथन की सत्यता या असत्यता पर तो कोई चर्चा करना नहीं चाहता, किन्तु इतना अवश्य चाहता हूँ कि लेखक व संपादक को भाषा का संयम अवश्य रखना चाहिये, क्योंकि भविष्य में ये बातें साम्प्रदायिक विद्वेष का कारण बनती हैं। ज्ञातव्य है कि श्वे. परम्परा के प्रागवाटों के सम्बन्ध में भी इतिहास लिखे गए हैं। सम्भवतः एक का उपयोग तो इस कृति में हुआ है किन्तु दूसरा जो देवास म.प्र. से प्रकाशित है, वह ग्रन्थ पं. जी को उपलब्ध नहीं हो सका होगा, भावी संस्करण में यदि उसका भी उपयोग हो सके तो उचित होगा। ग्रन्थ के षष्ठ और सप्तम खण्ड में जो परवार समाज के विभिन्न व्यक्तियों का परिचय दिया गया है, वह शोध की दृष्टि से आज तो महत्त्व का नहीं हैं, किन्तु भावी युग में जब कभी परवार समाज का इतिहास लिखा जायेगा यह अंश उनके लिए उपयोगी होगा। सात खण्डों में विभाजित इस ग्रन्थ में दो विभाग हैं -- प्रथम इतिहास विभाग और द्वितीय परवार जैन समाज का परिचय। इसमें इतिहास विभाग के लेखक पं. फूलचन्द्र जी शास्त्री हैं। (प्रकाशकीय, पृ. ६) और शेष द्वितीय विभाग की सामगी का संकलन विभिन्न स्रोतों से करके इस डॉ. कमलेश कुमार जैन (वाराणसी) ने पं. जगमोहनलाल जी शास्त्री कटनी के निर्देशन में सम्पन्न किया है ( अपनीबात, पृ. १२) । कृति पठनीय व संग्रहणीय है। इसके लिए लेखक व प्रकाशक धन्यवाद के पात्र हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org