Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 75
________________ पुस्तक समीक्षा के महत्त्व से इंकार नही किया जा सकता। ग्रन्थ शोध अध्येयताओं के लिए पठनीय व संग्रहणीय है । मध्यकालीन भारतीय मूर्तिकला, डा. मारुतिनन्दन तिवारी तथा डा. कमलगिरि : विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी 1991, पृष्ठ 206, चित्र 80, मूल्य रू. 150 ) ऐतिहासिक दृष्टि से मौर्य एवं शुंगकाल भारतीय मूर्तिकला की शैशवावस्था, कुषाण काल उसकी किशोरावस्था तथा गुप्तकाल युवावस्था का प्रतिनिधित्व करते हैं । गुप्तोत्तर काल में कला की मूल धारा में आंचलिक तत्वों का समावेश होता है और धीरे-धीरे क्षेत्रीय विशेषताएं उभर कर सामने आने लगती हैं। ये परिवर्तन केवल मूर्तिकला में ही नहीं अपितु स्थापत्य, काव्य, नाटक और संगीत प्रभृति कला की विभिन्न विधाओं में तथा भाषा और लिपि में भी दृष्टिगोचर होते हैं । 73 गुप्तकाल भारतीय संस्कृति का स्वर्णयुग था और गात्र- यष्टि की गोलाई और लचीलापन, सजीवता, मृदुता तथा रूप और भाव का सामंजस्य गुप्तकालीन मूर्ति कला के अभिन्न अंग थे । गुप्त - कला की परम्परा इतनी सशक्त थी कि भारत के कुछ प्रदेशों में 6वीं से 8वीं शती तक और कहीं-कहीं और भी बाद तक उसकी गरिमा का प्रभुत्व बना रहा, पर इन क्षेत्रीय कलाओं में भी आंचलिक विभेद स्पष्ट हैं । सामान्यतया गुप्तोत्तर काल में कला का हास प्रारम्भ हो जाता है। धीरे-धीरे गात्र- यष्टि में जकड़ाहट और शिथिलता आने लगती है और सजीवता का स्थान भंगिमाएँ ले लेती हैं तथा भाव प्रवणता के बदले प्रतिमाशास्त्रीय विधि-विधान एवं लक्षणों का वर्चस्व हो जाता है । सातवीं शती के बाद उत्तर भारत छोटे-मोटे अनेक राज्यों में बँट गया और दक्षिण भारत तो पहले से ही विभिन्न प्रदेशों में विभक्त था। इन सभी राज्यों और प्रदेशों की निजी सांस्कृतिक विरासत और निजी भाषा, साहित्य एवं कला-पद्धति थी और ये प्रायः संघर्षरत रहते थे। एक ओर ये राज्य सन्धि और विग्रह द्वारा आपस में जुड़ते और टकराते रहते थे, तो दूसरी ओर मन्दिर निर्माण एवं मन्दिरों को अधिक से अधिक अलंकृत करने की इनमें होड़ भी चलती रहती थी । अस्तु, प्रत्येक क्षेत्रीय कला शैली का अपना व्यक्तित्व और अपनी विशेषताएं थीं, जिनका इस पुस्तक में सूक्ष्म विश्लेषण एवं सर्वांगीण अध्ययन किया गया है। डा. तिवारी भारतीय कला के अनेक क्षेत्रों के और विशेषतः जैन प्रतिमा- शास्त्र के जाने-माने विशेषज्ञ हैं और डा. गिरि ने भी 'भारतीय श्रृंगार' नामक पुस्तक तथा अपने शोध-प्रबन्धों द्वारा कला के क्षेत्र में अपना स्थान बना लिया है। विद्वान् और विदुषी लेखकद्वय ने मूर्तिकला विषयक उपलब्ध साहित्य का गहन अनुशीलन तथा संग्रहालयों एवं अनेक कलाकेन्द्रों में निरीक्षण कर यह प्रामाणिक ग्रन्थ लिखा है । अंग्रेजी भाषा में भी मध्यकालीन मूर्तिकला की सभी शैलियों पर एक ग्रन्थ अप्राप्य है। इस प्रकार की सामग्री अनेक पुस्तकों और शोध प्रबन्धों में बिखरी हुई है। मध्यकालीन सभी शिल्प- शैलियों का हिन्दी के एक ग्रन्थ में सांगोपांग के भगीरथ परिश्रम एवं Jain Education International साहस का फल है। "For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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