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प्रो. सागरमल जैन
मिलते है, किन्तु मूलसंघ के साथ कुन्दकुन्दान्वय का कोई उल्लेख नहीं है। इससे यही फलित होता है कि लगभग ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी में कुन्दकुन्दान्वय ने मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है और अपने को मूलसंघीय कहना प्रारम्भ किया है।
द्राविडान्वय (द्रविड संघ), जिसे इन्द्रनन्दी ने जैनाभास कहा था, भी अङ्गडि के सन् 1040 के अभिलेख में अपने को मूलसंघ से जोड़ती है।
यही स्थिति यापनीय सम्प्रदाय के गणों की भी है, वे भी ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अपने नाम के साथ मूलसंघ शब्द का प्रयोग करने लगे। यापनीय पुन्नागवृक्ष मूलगण के सन् 1108 के अभिलेख में ..श्रीमूलसंघद पो (पुन्नाग वृक्षमूल गणद..' ऐसा उल्लेख है। इसी प्रकार यापनीय संघ के काणूर गण के ई. सन् 1074 के बन्दलिके के तथा ई. सन् 1075 के कुप्पटूर के अभिलेख में श्री मूलसंघान्वय क्राणरांगण ऐसा उल्लेख है । इस सब से भी यही फलित होता है कि इस काल में यापनीय भी अपने को मूलसंघीय कहने लगे थे।
यापनीय गणों के साथ मूलसंघ के इन उल्लेखों को देखकर डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी आदि दिगम्बर विद्वान यह कल्पना कर बैठे कि ये गण यापनीय संघ से अलग होकर मूलसंघ द्वारा आत्मसात कर लिये गये थे। किन्तु उनकी यह अवधारणा समुचित नहीं है क्योंकि इन अभिलेखों के समकालीन और परवर्ती अनेकों ऐस अभिलेख हैं जिनमें इन गणों का यापनीय संघ के गण के रूप में स्पष्ट उल्लेख है। सत्य तो यह है कि जब कुन्दकुन्दान्वय ने मूलसंघ के साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर अन्य संघों को जैनाभास और मिथ्यात्वी घोषित किया, (इन्द्रनन्दिकृत श्रुतावतार से इस तथ्य की पुष्टि होती है) तो प्रतिक्रिया स्वरूप दूसरों ने भी अपने को मूलसंघी कहना प्रारम्भ कर दिया। ग्यारहवीं शती के उत्तरार्ध में अचेल परम्परा के यापनीय, द्राविड आदि अनेक संघ अपने साथ मूलसंघ का उल्लेख करने लगे थे। जबकि इन्द्रनन्दि ने इन सभी को जैनाभास कहा था।
इसका तात्पर्य यही है कि ग्यारहवीं शताब्दी में अपने को मूलसंघी कहने की एक होड लगी हुई थी। यदि इस तथ्यों के प्रकाश में हम मथुरा के उक्त श्वेताम्बर मूलसंघ का उल्लेख करने वाले अभिलेख पर विचार करें तो यह पाते है कि उक्त अभिलेख भी अचेल परम्परा के विविध सम्प्रदायों के साथ मूलसंघ का उल्लेख होने के लगभग 60 वर्ष पूर्व का है अर्थात् उसीकाल का है। अतः सम्भव है कि उस युग के विविध अचेल परम्पराओं के समान ही सचेलपरम्परा भी अपने को मूलसंघ से जोड़ती हो।
मूलसंघ प्रारम्भ में किस परम्परा से सम्बद्ध था और कब दूसरी परम्पराओं ने उससे अपना सम्बन्ध जोडना प्रारम्भ किया - इसे समझने के लिये हमें सर्वप्रथम मूलसंघ के इतिहास
१. जैनशिलालेख संग्रह भाग २, लेखक्रमांक १७८ | २. वही
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200 Jn Education Internatiआग ३, भूमिका, पृ२६ व ३२/sonal Use Only
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