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डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
गृहीता के लक्षण होते हैं और वह नीतिमार्ग का उल्लंघन नहीं करती। ऐसी स्त्री राजा द्वारा ग्रहण कर लिये जाने के कारण भी गृहीता कहलाती है।
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तत्कालीन नारी-विषयक नैतिक मान्यता थी कि राजा संसार भर का स्वामी होता है। इस नीति के अनुसार ऐसी विधवा को गृहीता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता-पिता के साथ रहती हो या अकेली । उक्त नीतिकारों की मान्यता के अनुसार अगृहीता नारी वह है, जिसके साथ संसर्ग करने पर राजभय न हो।
इन नारियों के अतिरिक्त कुलटाएँ भी होती हैं। इनमें भी कुछ गृहीता होती हैं और कुछ अगृहीताएँ । निष्कर्ष में बताया गया है कि सभी सामान्य स्त्रियाँ गृहीता में अन्तर्भूत हैं और इनसे इतर स्त्रियाँ अगृहीता होती हैं।
स्त्रियाँ चेतन और अचेतन भेद से चार प्रकार की होती हैं । तिर्यंच (पशु-पक्षी आदि), मनुष्य और देव जाति की स्त्रियाँ चेतन हैं तथा काष्ठ, पाषाण, मृत्तिका आदि की बनी स्त्रियाँ अचेतन हैं।
स्त्री अपनी दोषबहुलता के कारण जहाँ निन्दा का कारण है, वहीं अपनी गुणातिशयता के कारण प्रशंसा की भूमि है। इसी प्रकार पुरुष भी अपने दोषों से निन्दनीय और गुणों से प्रशंसनीय होता है । कतिपय स्त्रियाँ 'भगवती आराधना १ ( गाथा ६८८-६६६ ) के उल्लेखानुसार, अपने गुणातिशय से मुनियों द्वारा वन्दनीय होती हैं । कतिपय यशस्विनी स्त्रियाँ मनुष्यलोक में देवता की तरह पूजनीय हुई हैं। शलाका पुरुषों को जन्म देने वाली स्त्रियाँ देवों और मनुष्यों में प्रमुख हैं । कुछ स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती हैं और कुछ आजन्म अविवाहिता रहकर निर्मल ब्रह्मचर्य व्रत का अनुष्ठान करती हैं। कुछ स्त्रियाँ तो आमरण तीव्र वैधव्य दुःख सहती हैं । शीलव्रत धारण करने से कतिपय स्त्रियों को शाप और वर देने की शक्ति प्राप्त हुई है। ऐसे स्त्रियों के माहात्म्य का गुणगान देवता भी करते हैं। ऐसी शीलवती स्त्रियों को न जल बहा सकता है, न अग्नि जला सकती है। वे अतिशय शीतल होती हैं। ऐसी स्त्रियों को साँप, बाघ आदि हिंस जन्तु हानि नहीं पहुँचाते। ऐसी शीलवती स्त्रियाँ श्रेष्ठ पुरुषों की जननी के रूप में लोक पूजित हैं।
'कुरलकाव्य २ (६.५८ ) के अनुसार जो स्त्रियाँ सभी देवों को छोड़कर केवल पतिदेव की पूजा करती हैं, उनका कहना सजल बादल भी मानते हैं। ऐसी ही महिलाएँ लोकमान्य विद्वान् पुत्र को जन्म देती हैं और जिनकी स्तुति स्वर्गस्थ देवता भी करते हैं। ऐसी ही स्त्रियाँ पृथिवी का गौरवालंकार होती हैं।
१. भगवती आराधना
शिवार्य, सं. एवं अनु. पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री जीवराज जैन ग्रन्थमाला (हिन्दी) सं. ३७, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सं.प्र. १६७८, खण्ड १, पृ. ५३७-५३८ । २. कुरलकाव्य - एलाचार्य, अनु. पं. गोविन्दराय जैन, नीतिधर्म ग्रन्थमाला सं. १, प्र. अनुवादक, महरौनी, Jain झांसी. प्र.सं १६५०७ परि ६/५- Private & Personal Use Only
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