Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 72
________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १६ सुख-दुःख का अनुभव होता रहता है, जो शरीर नामकरण के उदय से उत्पन्न होता है, उसे शरीर कहते हैं। शरीर पांच प्रकार के हैं-- 1. औदारिक 2. वैक्रिय 3. आहारक 4. तैजस और 5. कार्मण। शरीर संस्थान छः हैं -- 1. समचतुरस, 2. न्योगध-परिमंडल, 3. सादि (स्वाति), 4. कुब्ज, 5. वामन और 6. हुंडक। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक शैल्डन के अध्ययन के अनुसार शरीरों का वर्गीकरण तीन प्रकार का है -- 1. कोमल-गोलाकार (Endomorphict 2. आयताकार (Mesomorphic) तथा लम्बाकार (Ectomorphic)। केचनर (Kretchner ) के अनुसार शारीरिक वर्गीकरण इस प्रकार है -- 1. सुडौलकाय (Athletic) 2. लम्बकाय (Asthenic) 3. गोलकाय (Pyknic) तथा 4. डायसप्लास्टिक (Dysplastic)। संहनन नाम कर्म के अन्तर्गत हड्डियों का वर्गीकरण शरीर मनोवैज्ञानिकों के संधियों के भेद (Kinds of Joints) -- 1. सूत्र संन्धि (Fibrous Joints) 2. उपास्थि (Cartilaginous Joints ) 3. स्नेहक सन्धि (Synoyial Joints) आदि से तुलनीय है। पर्याप्ति नामकर्म के अन्तर्गत -- 1. आहार 2. शरीर 3. इन्द्रिय 4. श्वासोच्छ्वास, 5. भाषा और 6. मनः पर्याप्ति की तुलना आधुनिक आयुर्वेद एवं शरीर विज्ञान में गर्भ विज्ञान के साथ विस्तार से की जा सकती है। अष्टम अध्याय में उपसंहार के अन्तर्गत भारतीय दर्शन में कर्म-सिद्धान्त के अन्तर्गत कर्म-बन्धन के कारणों की विवेचना की गई है तथा विस्तार से कर्मों के विषय में ज्ञान-प्राप्ति के लिए कर्मों की अवस्थाओं पर प्रकाश डाला गया है। ज्ञान-मीमांसा, भाव जगत् तथा शरीर संरचना का मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में इस प्रकार से अध्ययन प्रस्तुत किया या है कि सम्यक्-ज्ञान, सम्यक्-दर्शन और सम्यक्-चारित्र के मनन पूर्वक अध्ययन और अभ्यास से तथा संक्रमणकरण की प्रक्रिया के द्वरा व्यक्तित्व का स्पान्तरण करते हुए आत्म विकास के परम-पथ पर अग्रसर हुआ जा सकता है। यही जीवन का चरम उद्देश्य है। - रत्नलाल जैन, गली आर्यसमाज, हांसी (हरियाणा) - १२५०३३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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