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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १८८२
बँधने के बाद उसका परिपाक होता है, वह सत्ता अवस्था है। परिपाक के पश्चात् उनके सुख दुःख रूप फल मिलते हैं। वह उदयमान (उदय) अवस्था है। वैदिक दर्शनों में क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध क्रमशः बन्ध, सत्ता और उदय समानार्थक हैं। कर्म का शीध्र फल मिलना उदीरणा है। कर्म की स्थिति और विपाक में वृद्धि होना उदवर्तना है। कर्म की स्थिति और विपाक में कमी होना, अपर्वतना है। कर्म की सजातीय प्रकृतियों का एक दूसरे के रूप में बदलना संक्रमण है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में कर्मसिद्धान्त में प्रापित संक्रमण को मार्गान्तीकरण या उदात्तीकरण कहा गया है। मार्गान्तीकरण या रूपान्तरण का अर्थ है : किसी प्रवृत्ति या क्रिया का रास्ता बदल देना। कर्मों की सर्वथा अनुदय अवस्था को उपशम कहते हैं। उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। अग्नि में तपाकर निकाली हुई लोहे की सुइयों के सम्बन्ध के समान पूर्वबद्ध कर्मों का मिल जाना निधत्ति है। निकाचित बन्ध होने के बाद कर्मों को भोगना ही पड़ता है। इसमें उदीरणा, उदवर्तना, अपर्वतना आदि नहीं होते। आर्हत दर्शन दीपिका में निकाचित दशा में भी परिवर्तन होना बताया गया है --
सव्व पगई एवं परिणाम वसादेव कमी होज्जा
पाप निकायाणं तवसाओ निकाइयाणं वि। करोडों भवों के संचित कर्म तप के द्वारा निजीर्ण हो जाते हैं। मन-वचन-काया की श प्रवृत्ति से आत्मा के साथ जुड़े कर्म झड़ते हैं और आत्मा कुछ अंशों में उजज्वल होती है, वह निर्जरा है। कर्म झड़ने का हेतु होने से तप को भी निर्जरा कहते हैं। 'भव कोडी संचीयकम तवसा निज्जरिज्जइ।' अतः छः प्रकार की आन्तरिक तथा छः प्रकार की बाहरी निर्जरा का इसमें विवेचन किया गया है। कर्मों की निर्जरा के क्रमिक विकास की सीढ़ियों पर चढ़ने की क्रिया का नाम गुणस्थान है। इसका भी इसमें विवेचन किया गया है।
___पंचम अध्याय में मैने ज्ञानमीमांसा का आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में अध्ययन प्रस्तत किया है। जैनागमों के अनुसार -- जीव ज्ञान-जल का पान कर मुक्ति-मन्दिर को प्राप्त होते हैं। जो जानता है, वह ज्ञान है, जिसके द्वारा जाना जाए, सो ज्ञान है, जानना मात्र ज्ञान है।
ज्ञान दो प्रकार का है -- 1. प्रत्यक्ष और 2. परोक्ष। मति और श्रुत ज्ञान परोक्ष है। अवधि, मनःपर्याय और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले बोध को मति ज्ञान कहते हैं। मतिज्ञान के दो भेद हैं -- 1. श्रुत निश्रित और 2. अश्रुतनिश्रिता अश्रुतनिश्रित में चार प्रकार की बुद्धियों का विवेचन है -- 1. औत्पातिकी, 2. वैनयिकी, 3. कार्मिकी और 4. पारिणामिकी। मतिज्ञान चार प्रकार का है -- 1. अवग्रह, 2. ईहा 3. अवाय और 4. धारणा। मति, स्मृति, संज्ञा, (प्रत्यमिज्ञान) चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्यायवाची नाम हैं।
मनोविज्ञान की स्मृति (Memory ) और जैन दर्शन के मतिज्ञान में बहुत अंशों में साम्य है। मनोविज्ञान के स्मृति के अंगों (Factors of Memory) -- 1. याद करना (Remember to
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