Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 69
________________ रत्न लाल जैन कर्मों की विविध प्रकृतियों को जैन दर्शन में मूल प्रकृति-आठ (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वैदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र, आयु और अन्तराय) और उत्तर 148 प्रकृतियों में वर्गीकृत किया गया है । अन्य दर्शन यह मानते हैं कि कर्म संस्कार रूप है। जैन दर्शन के अनुसार शरीर पौद्गलिक है, उसका कारण कर्म है। अतः कर्म भी पौद्गलिक है। भाव कर्म और द्रव्य कर्म में बड़ा अन्तर है। कर्म के चैत्तसिकपक्ष को भाव कर्म या मल कहते हैं और कर्म पुद्गलों को द्रव्य कर्म या रज कहा जाता है। भाव कर्म से द्रव्य कर्म का संग्रह होता है और द्रव्य कर्मों से भाव कर्मों की तीव्रता निर्धारित होती है। प्रकृति संक्रमण का सिद्धान्त जैन कर्मवाद की प्रमुख विशेषता है। जैसे वनस्पति विज्ञान विशेषज्ञ खट्टे फलों को मीठे फलों में तथा निम्न जाति के बीजों को उन्नत जाति के बीजों में परिवर्तित कर देते हैं, वैस ही पाप के बद्ध कर्म परमाणु कालान्तर में तप आदि के द्वारा पुण्य के परमाणु के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। कर्म मुक्त होकर जीव आत्मा से परमात्मा बन सकता है। 11 तृतीय अध्याय में मैने कर्म-बन्ध के कारणों का अध्ययन किया है। जीव और कर्म के संश्लेष को बन्ध कहते हैं। जीव अपनी वृत्तियों से कर्म योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है। इन ग्रहण किये हुए कर्म - पुद्गल और जीव- प्रदेशों का बन्धन या संयोग बन्ध है । जिस चैतन्य परिणाम से कर्म बँधता है, वह भाव बन्ध है और आत्मा के प्रदेशों का कर्म प्रदेशों के साथ अन्योन्य प्रवेश एक-दूसरे में मिल जाना एक क्षेत्रावगाही हो जाना द्रव्य बन्ध है । कर्म आने का द्वार है, आसव । कर्मबन्ध का मुख्य कारण है कषाय । आगमों में कर्मबन्ध के दो हेतु हैं, 1- राग और द्वेष । राग से माया और लोभ तथा द्वेष से क्रोध और मान उत्पन्न होते हैं। I कर्मबन्ध के चार कारण हैं 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. योग और 4. कषाय । ठाणांग, समवायांग में पांच कारण बताये गये हैं 1. मिथ्यात्व 2. अविरति 3. प्रमाद 4. कषाय और 5. योग । वाचक उमास्वाति के मत में 42 कर्मबन्ध के कारण (आस्रव) है 1 से 5 इन्द्रियां, 6-9 चार कषाय 10-14 पांच अव्रत, 15-38 पच्चीस क्रियाएं 39-42 तीन योग । 67 -- -- Jain Education International 1 -- आसव के चार भेद हैं 1. प्रकृति 2. स्थिति 3. अनुभाग और 4. प्रदेश | योग आस्रव प्रकृति बन्ध और प्रदेश बन्ध का हेतु है तथा कषाय आस्रव स्थिति बन्ध और अनुभाग बन्धका हेतु है। For Private & Personal Use Only ―― चतुर्थ अध्याय में मैंने कर्मों की अवस्थाओं का अध्ययन किया है जैन दर्शन कर्म को स्वतन्त्र तत्व मानता है । कर्मसिद्धान्त की विशालता के रूप में दस अवस्थाओं-करणों की अवधारणा की गई है। कर्म अनन्त परमाणुओं के स्कन्ध हैं, वे समूचे लोक में जीवात्मा की अच्छी-बुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बन्ध जाते हैं। www.jainelibrary.org

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