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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९८२
लोक में प्रचलित थे उन्हीं को नय मानकर उनका संग्रह विविध नय के रूप में किया गया है और यह सिद्ध किया गया है कि जैन दर्शन किस प्रकार सर्वनयमय है।
प्रस्तुत अध्ययन में हमने नयचक में उपस्थित विभिन्न दार्शनिक मतवादों को दार्शनिक समस्याओं के आधार पर आधुनिक दृष्टि से प्रस्तुत किया है और भारतीय दर्शन की प्रमुख समस्याओं के संदर्भ में ही ग्रन्थ का अध्ययन किया गया है।
शोध-प्रबन्ध के प्रथम अध्याय में जैनदार्शनिक परम्परा के विकास का इतिहास देते हुए उसमें प्रस्तुत ग्रन्थ और ग्रन्थकार का क्या स्थान है इसे स्पष्ट किया गया है। साथ ही साथ इसमें मल्लवादी के जीवन, समय आदि पर भी विचार किया गया है और अध्याय के अंत में ग्रन्थ की विषय वस्तु को प्रस्तुत किया गया है। ____इस शोध-प्रबन्ध का दूसरा अध्याय बुद्धिवाद और अनुभववाद की समस्या से सम्बन्धित है। आ. मल्लवादी का यह वैशिष्टय है कि उन्होंने प्रथम अर में आनुभविक आधारों पर स्थित दार्शनिक मतों, जिन्हें परम्परागत रूप में अज्ञानवादी कहा जाता है, का प्रस्तुतीकरण किया है और फिर दूसरे अर से तर्क बुद्धि के आधार पर उन अनुभववादी मान्यताओं की समीक्षा प्रस्तुत की है।
प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का तृतीय अध्याय सृष्टि के कारण की समस्या से सम्बन्धित है। इस अध्याय में आ. मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत अपने युग की जगत् वैचित्र्य के कारण संबंधी वादों यथा -- काल, स्वभाव, नियति, भाव (चेतना), यदृच्छा, कर्म आदि का प्रस्तुतीकरण और उसकी समीक्षा प्रस्तुत की गई है।
चतुर्थ अध्याय मुख्यरूप से न्यायदर्शन की ईश्वर सम्बन्धी अवधारणा के प्रस्तुतीकरण के । साथ-साथ उसकी समीक्षा के रूप में ईश्वर के सृष्टि-कर्तृत्व की समालोचना प्रस्तुत करता है।
शोध-प्रबन्ध का पंचम अध्याय सत के स्वरूप की समस्या से सम्बन्धित है। उसमें मुख्य रूप से नित्यवाद, अनित्यवाद और नित्यानित्यवाद की सत् सम्बन्धी अवधारणाओं का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा की गई है। साथ ही इसमें परमसत्ता के चित्-अचित् तथा एक-अनेक होने के प्रश्न को भी उठाया गया है। ज्ञातव्य है कि मल्लवादी जहां एक ओर सत् सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं को प्रस्तुत करते हैं वहीं दूसरी ओर उसकी समीक्षा करते हुए उनके दोषों को भी स्पष्ट कर देते हैं।
शोध-प्रबन्ध का षष्ठम् अध्याय द्रव्य, गुण, पर्याय और उसके पारस्परिक सम्बन्ध तथा स्वरूप की समस्या को प्रस्तुत करता है। इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु द्रव्य, गुण और पर्याय की पारस्परिक भिन्नता और अभिन्नता को लेकर है।
हमनें इस प्रबन्ध के सप्तम अध्याय में क्रियावाद और अक्रियावाद को तथा अष्टम् अध्याय में सामान्य और विशेष के सम्बन्ध में मल्लवादी के द्वारा प्रस्तुत अवधारणाओं को और उनकी समीक्षा का प्रस्तुत किया है। For Private & Personal use Only
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