Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 65
________________ जितेन्द्र बी. शाह नवम् अध्याय मुख्य रूप से आत्मा के अस्तित्व और उसके स्वरूप की समस्या से सम्बन्धित है । इस अध्याय में भारतीय दर्शन की आत्मा सम्बन्धी विभिन्न अवधारणाओं के सिंहावलोकन के साथ-साथ उनकी समीक्षा भी प्रस्तुत की गई है। 63 दसवें अध्याय में मल्लवादी द्वारा प्रस्तुत शब्द और अर्थ के पारस्परिक सम्बन्ध और इस सम्बन्ध में उस युग के विभिन्न मतवादों की समीक्षा की गई है। ग्यारहवां अध्याय शब्द की वाच्यता सामर्थ्य या वक्तव्यता और अवक्तव्यता की चर्चा करता है। सत्ता की निर्वचनीयता और अनिर्वचनीयता सम्बन्धी विभिन्न मत और उनकी समीक्षा ही इस अध्याय का विवेच्य बिन्दु है । ब्रदश अध्याय में जैनों की नय वर्गीकरण की शैली की विवेचना के साथ-साथ यह स्पष्ट किया गया है कि नयचक्र में किस प्रकार परम्परागत शैली का परित्याग करके नई शैली की उद्भावना की गई है। शोध-प्रबन्ध के अन्त में उपसंहार के रूप में ग्रन्थ में प्रस्तुत विभिन्न दार्शनिक समस्याओं के समाधान में नयचक्र के अवदान को स्थापित किया गया है 1 इस प्रकार इस शोध प्रबन्ध में हमने भारतीय दर्शन की विभिन्न दार्शनिक अवधारणाओं का मल्लवादी के द्वादशार नयचक्र के परिप्रेक्ष्य में एक मूल्यांकन किया है। इस शोध-प्रबन्ध में हमने केवल उन्हीं समस्याओं पर विचार किया है, जो मल्लवादी के युग में अर्थात् पांचवीं शताब्दी में उपलब्ध थीं। यह सम्भव है कि परवर्ती कुछ दार्शनिक समस्याओं को इसमें स्थान न मिला हो, किन्तु इसका कारण शोध विषय की अपनी सीमा है । इस प्रस्तुतीकरण पूर्व संगोष्ठी के अन्त में यह कहना चाहूँगा कि इस शोध कार्य के पीछे भारतीय दर्शन के इस अमूल्य ग्रन्थ, जो मुनि जम्बूविजय जी के अथक परिश्रम से पुनः संरक्षित हो सका है, की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट हो, यही एक मात्र अपेक्षा रही है, क्योंकि प्रस्तुत अध्ययन तो सम्पूर्ण भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि रूप इस महाग्रन्थ में केवल एक चंचुपात ही है। आशा है कि भविष्य में शोध अध्येता और विद्वान इस ग्रन्थ को अपने अध्ययन का विषय बनाकर उसके विभिन्न पक्षों को उद्घाटित करेंगें । शोध-क्रान पार्श्वनाथ शोधपीठ वाराणसी-५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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