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द्वादशार नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
शोध प्रबन्ध का सार संक्षेप 1
स्वतंत्र दार्शनिक चिंतन की दृष्टि से भारतीय दर्शन परम्परा में श्रमण परम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। श्रमण परम्परा का यह वैशिष्टय रहा है कि उसने दर्शन को आस्था से मुक्त करके तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। वर्तमान में श्रमण परम्परा के जो दर्शन उपलब्ध हैं, उनमें प्रमुख रूप से चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि आज आजीवक आदि कुछ श्रमण परम्परा के दर्शन सुव्यवस्थित रूप में अनुपलब्ध है और कुछ सांख्य और योग जैसे दर्शनों को आस्तिक दर्शनों के वर्ग में समाहित करके वैदिक दर्शन परम्परा का ही अंग माने जाने लगा है।
- जितेन्द्र बी. शाह
भारतीय दार्शनिक चिंतन की जो विविध धाराएँ अस्तित्व में आईं उनके बीच समन्वय स्थापित करने का काम जैनदर्शन ने अपने नयवाद के माध्यम से प्रारम्भ किया था। बौद्ध दर्शन से भिन्न जैन दर्शन का यह वैशिष्टय रहा कि जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने अपने से भिन्न दर्शन परम्परा में दोषों की उद्भावना दिखाकर मात्र उन्हें नकारने का काम किया; वहाँ जैन दार्शनिकों ने यद्यपि विभिन्न दर्शन परम्पराओं की समीक्षा की किन्तु उन्हें नकारने के स्थान पर परस्पर समन्वित और संयोजित करने का प्रयत्न किया। जैन दार्शनिकों का यह उद्घोष था कि जो भी दर्शन अपने को ही एक मात्र सत्य मानता है एवं दूसरे दर्शनों को असत्य कहकर नकारने का प्रयत्न करता है, वही मिथ्यादर्शन है। उनके अनुसार विभिन्न दर्शन जब विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर एक दूसरे से समन्वित हो जाते हैं, तो वे सत्यता को प्राप्त कर लेते हैं। प्रत्येक दर्शन अपने से विरोधी मत का निरपेक्ष रूप से खंडन करने के कारण जहाँ दुर्नय (मिथ्यादर्शन ) होता है वहीं वह दर्शन अनेकान्तवाद में स्थान पाकर सुनय ( सम्यक्दर्शन) बन जाता है 1 आ. सिद्धसेन ने पृथक्-पृथक् दर्शनों को रत्नों की उपमा दी और यह बताया कि वे दर्शन पृथक्-पृथक् रूप में कितने ही मूल्यवान क्यों न हों, हार की शोभा को प्राप्त नहीं कर पाते। उन्हें हार की शोभा को प्राप्त करने के लिए एक सूत्र में आबद्ध होना होगा। जैन विचारकों का अनेकान्तवाद विभिन्न दार्शनिक मतवादों को सूत्रबद्ध करने का एक प्रयत्न है। आचार्य मल्लवादी का इस दिशा एक महत्त्वपूर्ण अवदान द्वादशार नयचक्र के रूप में हमारे सामने है । अनेकान्तवाद के कारण जैन दर्शन में जो विशेषता आयी, वह यह कि जैन दर्शन के अध्ययन के लिए और उसके सम्यक् प्रस्तुतीकरण के लिए अन्य दार्शनिक परम्पराओं का अध्ययन
आवश्यक माना गया।
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