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शिव प्रसाद
वि.सं. 1518 आषाढ़ सुदि 3 गुरुवार जै.धा.प्र.ले.सं.भाग लेखांक 166 वि.सं. 1518 आषाढ़ सुदि 3 गुरुवार प्रा.ले.सं.,
लेखांक 326 वि. सं. 1518 आषाढ़ सुदि 3 गुरुवार जै.ले.सं.भाग 3 लेखांक 2130
एवं बी.जै.ले.सं.
लेखांक 2812 वि.सं. 1519 आषाढ सुदि 1 सोमवार अ.प्र.जै.ले.सं., लेखांक 187 वि.सं. 1519 आषाढ वदि 11 शुक्रवार जै.धा.प्र.ले.सं.भाग 1 लेखांक 1022 वि.सं. 1521 वैशाख सुदि 10 रविवार अ.प्र.जै.ले.सं., लेखांक 84 वि.सं. 1524 वैशाख सुदि 2 रविवार जै. स.प्र. वर्ष 6 अंक 10 वि.सं. 1530 माघ सुदि 10 शुक्रवार श.वै.
लेखांक 203 वि.सं. 1531 वैशाख सुदि 10 शनिवार जै.धा.प्र.ले.सं.भाग 2 लेखांक 750 वि.सं. 1532 वैशाख वदि 5 सोमवार जै.ले.सं.भाग 3 लेखांक 2522 वि.सं. 1536 फाल्गुन सुदि 3 सोमवार श्री.प्र.ले.सं., लेखांक 95
चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, चिन्तामणिशेरी-राधनपुर में प्रतिष्ठापित श्रेयांसनाथ की धातु की चौबीसी प्रतिमा पर वि.सं. 1512 माघ सुदि 10 बुधवार का लेख उत्कीर्ण है। इस लेख में प्रतिमाप्रतिष्ठापक आचार्य पुण्यरत्नसूरि तथा उनके पूर्ववर्ती तीन आचार्यो-गुणसागरसूरि, गुणसमुद्रसूरि और सुमतिप्रभसूरि का भी नाम मिलता है, जो इस प्रकार है :
गुणसागरसूरि
गुणसमुद्रसूरि
सुमतिप्रभसूरि
पुण्यरत्नसूरि [वि. सं. 1512 में श्रेयांसनाथ
की धातु की चौबीसी प्रतिमा के प्रतिष्ठापक] इस प्रकार पुण्यरत्नसूरि का गुणसमुद्रसूरि और सुमतिप्रभसूरि दोनों के पट्टधर के रूप में उल्लेख मिलता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सुमतिप्रभसूरि और पुण्यरत्नसूरि दोनों परस्पर गुरुभ्राता थे और इन दोनों मुनिजनों के गुरु थे गुणसमुद्रसूरि। गुणसमुद्रसूरि के पश्चात् उनके शिष्य सुमतिप्रभसूरि उनके पट्टधर बने और सुमतिप्रभसूरि के पट्टधर उनके कनिष्ठ गुरुभ्राता पुण्यरत्नसूरि हुए। इसीलिये गुणसमुद्रसूरि और सुमतिप्रभसूरि दोनों के पट्टधर के रूप में पुण्यरत्नसूरि का उल्लेख मिलता है।
उक्त प्रतिमालेखीय साक्ष्यों के आधार पर पूर्णिमागच्छीय मुनिजनों की जो छोटी-छोटी गुर्वावली प्राप्त होती है उन्हें इस प्रकार समायोजित किया जा सकता है :
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