Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 55
________________ कवि छल्ह कृत अरडकमल्ल का चार भाषाओं में वर्णन - भंवरलाल नाहटा किसी भी भाषा के विकास-क्रम की अभिज्ञता के लिये प्राचीन साहित्य का अनुशीलन अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थागारों में गोते लगाने पर मूल्यवान मौक्तिक हस्तगत होते हैं पर इस कार्य में मौलिक शोधकर्ता आपेक्षित है। यद्यपि पहले की अपेक्षा अब शोध कार्य में प्रगति हुई है और फलस्वरूप बहुत-सी अप्रकाशित सामग्री प्रकाश में आई है फिर भी इतना विपुल साहित्य छिपा पड़ा है जिसका अनुसंधान आज भी नहीं हो पाया है। यों तो "बारह कोशे बोली पलटै"-- यह लोकोक्ति प्रसिद्ध है परन्तु मुख्य भाषाओं में लिखा हुआ जो साहित्य उपलब्ध है, उसी का अध्ययन उसके विकास-वृत्त की आधारशिला है। प्रकाशन-युग में ग्रियर्सन आदि विदेशी भाषाशास्त्रियों ने एक ही भाव वाले विविध भाषाओं के उद्धरण देकर अपनी अध्ययन शैली को जनता के सम्मुख प्रस्तुत कर अध्येताओं के लिये मार्ग प्रशस्त किया है। वस्तुतः देखा जाय तो यह परम्परा भारत में पूर्व काल से चली आ रही थी। प्राचीन ग्रन्थों में विभिन्न प्रान्तीय भाषाओं के उदाहरण बहुत पाये जाते हैं। भाषा के माध्यम से भावों की प्रान्तीय शैली से स्पष्टाभिव्यक्ति जितनी गद्य में हो सकती है उतनी पद्य में नहीं। क्रिया-पदादि की अल्पता से पद्य एक दूसरी भाषा के अति निकट आ जाते है पर गद्य तो जन-जीवन में अहर्निश व्यवहार होने से अधिक वास्तविकता पूर्ण है। विविध भाषाओं का एक साथ आनन्द लेने के लिए पुरातनकालीन कवियों ने कतिपय स्तोत्र-छंद आदि फित किये हैं। श्री अगरचन्द जी नाहटा ने अष्ट भाषाओं के सवैये, चौबोली सवैये आदि राजस्थान भारती में प्रकाशित किये थे। गद्य कृतियां तो प्राचीन राजस्थान में प्रचुर परिमाण में पाई जाती हैं, जिनमें वर्णकसमुच्चय, वाग्विलास, सभाश्रृंगार मुत्कालानुप्रास, अभाणक रत्नाकर आदि एवं परवर्ती दलपतविलास और राजस्थानी में सैकड़ों बातें, नीबांवलरोदुपहरो आदि प्रचुर साहित्य है। लघु कृतियों में पद्यानुकारी शैली एक विशेष प्रकार की थी। हमारे संग्रह की तपागच्छ पुर्वाक्ली भारतीय विद्या में प्रकाशित है। मैंने राजस्थानी भाग 2 में दो पद्यानुकारी कृतियाँ प्रकाशित की थी, जिनमें साले-बहनोई की गोष्ठी में अपनी जाति, गोत्र, गुरु, कुल देवी आदि के वर्णन के साथ-साथ राजाओं का भी वर्णन प्रस्तुत है। ये कृतियाँ प्राचीन राजस्थानी से संबन्धित पी पर कुछ ऐसी कृतियाँ भी मिलती हैं जिन में भिन्न-भिन्न भाषाओं के उदाहरण दिये जाते थे। बीकानेर ज्ञान भण्डार में जिनप्रभसूरि परम्परा की एक संग्रह प्रति में ऐसी गद्य- कृति है जिसमें धुंजयतीर्थ पर यात्रार्थ उपस्थित गुर्जरी, ग्वालेरी, मारवाड़ी और मालवी स्त्रियों द्वरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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