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जैन दृष्टि में नारी की अवधारणा
- डॉ. श्रीरंजन सूरिदेव
धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासीपत्नी, परस्त्री, वेश्या आदि भेद से नारियाँ कई प्रकार की कही गई हैं। जैनागमों में नारियों की भरपूर निन्दा की गई है, तो उन्हें सती मानकर पूजनीया भी बताया गया है। जो मिथ्यात्व आदि दोषों से अपने-आपको आच्छादित करती है और मधुर सम्भाषणों से दूसरों को भी दूषित करती है, इसलिए आच्छादन-स्वभाव की होने के कारण उन्हें 'स्त्री कहा गया है। प्रसिद्ध कर्म-ग्रन्थ 'गोम्मटसार में उल्लेख है कि जो पुरुष की आकांक्षा करती है, उसे 'स्त्री' कहते हैं : 'पुरुषं स्तृणाति आकांक्षतीति स्त्री अर्थात् स्त्री स्वभावतः पुरुषाकांक्षिणी होती है।
'भगवतीआराधना २ में स्त्री के कतिपय पर्यायवाची शब्दों की व्युत्पत्ति (गाथा ६७१-६७५) इस प्रकार उपन्यस्त की गई है : स्त्री पुरुष को मारती है, इसलिए उसे 'वधू कहते हैं। पुरुषों में दोष को उत्पन्न करती है, इसलिए वह 'स्त्री है। मनुष्य के लिए इसके समान दूसरा कोई शत्र (न+अरि) नहीं है, इसलिए वह 'नारी कहलाती है। वह पुरुष को प्रमत्त बनाती है, इसलिए वह 'प्रमदा मानी गई है। पुरुष के गले में वह अनर्थों को बांधती है अथवा पुरुष को देखकर उसमें लीन हो जाती है, अतः उसको 'विलया' कहते हैं। वह पुरुष को दुःख से सुयक्त करती है, अतः उसे 'युवती' और 'योषा भी कहा जाता है। उसके हृदय में धैर्य और बल नहीं रहता, इसलिए उसे 'अबला' कहते हैं। कुत्सित मरण का उपाय उत्पन्न करने के कारण उसकी संज्ञा 'कुमारी है। वह पुरुष पर दोषारोपण करती है, इसलिए उसको 'महिला' नाम दिया गया है। इस प्रकार स्त्रियों के जितने भी नाम हैं, वे सब अशुभ हैं। स्त्रीवेद (स्त्री होने की अनुभूति) का उदय होने पर पुरुष की अभिलाषा-रूप मैथुन संज्ञा से आक्रान्त जीव भाव-स्त्री हो जाता है और फिर, रोम-रहित मुख, स्तन-योनि आदि चिन्हों से युक्त होने पर भावस्त्री द्रव्यस्त्री में परिणत हो जाती है। दूसरे शब्दों में स्त्री वेद का उदय होने पर जो जीव गर्भ धारण करता है, वह द्रव्यस्त्री है।
१. गोम्मटसार (जीवकाण्ड) - नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती, टीका गाथा २७४। २. भगवती आराधना - शिवार्य, सं. एवं अनु. पं. कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री, जीवराज जैन ग्रन्थमाला
(हिन्दी) सं. ३७, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, सं.प्र. १६७८, खण्ड १, पृ. ५३७-५३८ ।
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