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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९८२
स्त्रियों के भेद
'लाटीसंहिता' (2-178-206) में स्त्रियों के अवस्था-भेद को भी बड़ी विशदता से उपस्थापित किया गया है :
देव शास्त्र और गुरु को नमस्कार कर तथा अपने भाई बन्धुओं के साक्षीपूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है, उसे विवाहिता स्त्री या स्वस्त्री कहते हैं। ऐसी विवाहिता स्त्रियो से भिन्न अन्य सब पत्नियाँ 'दासी कहलाती हैं। विवाहिता भी दो प्रकार की होती हैं। एक तो परम्परागत रूप से ब्याही गई अपनी जाति की कन्या और दूसरी अन्य जाति की ब्याही गई कन्या। अपनी जाति की ब्याही गई कन्या धर्मपत्नी कहलाती है। वही समस्त दैव और पितकार्यों में अपने पुरुष के साथ रहती है। उस धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही पिता के धर्म का अधिकारी होता है और वही गोत्ररक्षा करने वाला समस्त लोक का अविरोधी पुत्र होता है किन्तु अन्य जाति की विवाहिता स्त्री के पुत्र को उपर्युक्त किसी भी कार्य का अधिकार नहीं है।
पिता की साक्षीपूर्वक अन्य जाति की कन्या से जो विवाह किया जाता है, वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोग्या होती है, अन्य धर्मकार्यों में सहभागिनी नहीं होती।
अपनी जाति तथा पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की होती हैं। जिसके साथ विवाह नहीं हुआ, वैसी स्त्री 'दासी या चेटी' कहलाती है। यह दासी केवल भोगाभिनषिणी होती है। दासी और भोग पत्नी केवल भोगोपभोग के काम आती हैं। लौकिक दृष्टि से इन दोनों में भेद होने पर भी परमार्थतः कोई भेद नहीं है। ___ परस्त्री भी दो प्रकार की होती है -- एक अधीन रहने वाली और दूसरी स्वाधीन रहने वाली। पहली को गृहीता कहते हैं और दूसरी को अग्रहीता। इनके अतिरिक्त तीसरी, वेश्या भी परस्त्री कहलाती हैं।
गृहीता ही विवाहिता है। यह दो प्रकार की होती है : सधवा और विधवा। विधवा गृहीता तभी होगी, जब वह पति की मृत्यु के बाद पिता, भाई-बन्धु अथवा जेठ या देवर के अधीन रहती हो। इसके अतिरिक्त वह दासी स्त्री भी गृहीता ही होती है, जिसका पति घर का स्वामी हो या 'गृहपति पद पर प्रतिष्ठित हो। यदि वह दासी किसी की रखैल न होकर स्वतन्त्र हो, तो वह गृहीता दासी के समान होकर भी अगृहीता होती है। गृहीता विधवा के यदि पिता, भाई-बन्धु, या जेठ-देवर आदि सभी मर जायँ और वह अकेली रह जाय, तो वह गृहीता न होकर अगृहीता होती है। ऐसे स्त्रियों के साथ संसर्ग करने वाले को, पता चल जाने पर, राज्य की ओर से कठोर दण्ड मिलता था। कुछ समाज-व्यवस्थापकों का मत है कि भाई-बन्धु से सर्वथा विहीन होने पर भी विधवा स्त्री अगृहीता न होकर गृहीता ही रहती है क्योंकि, उसमें
१. लाटी संहिता-राजमल्ल, माणिक चन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला सं. २६, बम्बई, प्र.सं. १८२७, सर्ग
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