Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९८२ साहित्य में मुझे कहीं भी यज्ञ में की जाने वाली पशु-हिंसा का विरोध बहुत आग्रहपूर्वक किया गया नहीं मिला। इतना तो प्रत्यक्ष-गोचर है कि आज श्रौत यज्ञों में पशु-बलि नहीं होती। ऐसी स्थिति में यह कहना कठिन है कि यह प्रभाव-श्रमण परम्परा का है या उस गोपालक वैष्णव परम्परा का जो पशु हिंसा की अपेक्षा पशुपालन और मांसाहार की अपेक्षा शाकाहार पर इतना अधिक बल देती थी कि आज बोलचाल की भाषा में वैष्णव-भोजन शाकाहार का पर्यायवाची बन गया है। 3. पतंजलि के योग-सूत्र में यमों में प्रथम अहिंसा का विवेचन करते समय उस पर जैन परम्परा का प्रभाव विवेचन करते समय जैन परम्परा का प्रभाव प्रत्यक्ष दिखाई देता है। वहां किसी भी स्थिति में हिंसा की छूट न देने को महाव्रत कहा गया है। किन्हीं विशेष परिस्थितियों में हिंसा की छूट रखना हमारी कमजोरी हो सकती है, किन्तु धर्म नहीं। यह विवेचन सर्वथा जैन धर्म के अनुकूल है। यह मानना होगा कि जैन धर्म के अहिंसा के सिद्धांत ने अन्ततोगत्वा वैदिक परम्परा के साहित्य में एक ऐसा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया कि आज की सामयिक भारतीय संस्कृति की कल्पना भी अहिंसा के बिना नहीं की जा सकती तथापि यह मानना भी नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है कि अहिंसा भारतीय जन-जीवन का कोई अंग बन गई है। स्वयं जैन समाज ही जैन परम्पराभिमत अहिंसा की आवश्यक शर्त अपरिग्रह का पालन करने में असमर्थ रहा है फिर जैन समाज में तो अहिंसा के व्यवहार में आने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? इतना अवश्य है कि वैदिक परम्परा में भी शंकर, गान्धी और विनोबा जैसे कुछ मनीषी अपिरग्रहानुप्राणित अहिंसा के प्रति उतने ही समर्पित रहे जितने कुन्द-कुन्द, हरिभद्र अथवा श्रीमद् राजचन्द्र जैसे जैन-मनीषी और इन अंशों में श्रमण परम्परा ने वैदिक साहित्य को भी प्रभावित किया है। जैन दर्शन का एक महत्वपूर्ण सूत्र है समता। समता का अर्थ है -- सुख-दुख, हानि-लाभ, मान-अपमान में समानता का भाव रखना। यह एक ऐसा व्यावहारिक सिद्धान्त है जो पूरे भारतीय वाङ्मय में प्रतिबिम्बित हुआ। इस समानता का मुख्य आधार है वीतरागता। इन्द्रियों के अनुकूल विषयों की प्राप्ति होने पर प्रसन्नता का भाव समता भाव का विरोधी है। वेद साहित्य को छोड़कर उपनिषद् के बाद के सभी साहित्य में वैराग्य की चर्चा की गई है। किन्तु वैदिक साहित्य में वैराग्य के अनेक आदर्श हैं। राजर्षि जनक राज्य करते हुए भी विरक्त है और विदेह-मुक्त कहलाते हैं। उपनिषद् के अनेक ऋषि सोने से मंढ़े हुए सीगों वाली गायों को पाकर प्रसन्न होते हैं यद्यपि वे ब्रह्म ज्ञानी हैं। कठोपनिषद् में नचिकेता सांसारिक सुख-वैभव के प्रति वैराग्य प्रदर्शित करता है किन्तु फिर भी वह एक वाक्य में ऐसा तथ्य उदघोषित कर देता है जो उसके वैराग्य को श्रमण परम्परा के वैराग्य से भिन्न करता है। वह यमराज से कहता है -- लप्स्यामहे वित्त मद्राक्ष्म चेत्वा । यह वाक्य नचिकेता के मन की परिग्रह-संज्ञा को ही अभिव्यक्त करता है। फिर भी इसमें संदेह नहीं उपनिषदों में वैराग्य की भावना का खूब विकास हुआ। १. कठोपनिषद्, वल्ली १/२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82