Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 12
________________ श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १९९२ और सम्भवतः उनके समर्थन में स्वयं वैदिक परम्परा के ही नैयायिकों द्वारा शंकराचार्य को दिया गया विरुद अर्ध-वैनाशिक एक प्रमाण भी बन जाये, वहां दूसरी ओर स्वयं वेदान्ती शांकर वेदान्त में किसी भी प्रकार की श्रमण परम्परा की छाया से इंकार करते हुए उसे विशुद्ध वैदिक श्रुतिमूलक दर्शन घोषित करेगें। किसी भी परम्परा में मुख्य धारा से हट कर विरोधी स्वर भी सदा रहते ही हैं। इन विरोधी स्वरों को सदा किसी दूसरी परम्परा का प्रभाव ही मान लेना युक्ति-युक्त नहीं। किसी भी दार्शनिक तथा धार्मिक परम्परा का मूल स्रोत जीवन है। जीवन की अनित्यता का तथ्य एक ऐसा स्रोत है जिससे न्यूनाधिक मात्रा में किसी भी विचारशील पुरुष के मन में वैराग्य का भाव जागना स्वाभाविक है। जहां-जहां वैराग्य की भावना है वह सब किसी एक परम्परा का प्रभाव ही है -- यह मान्यता उचित नहीं है। फिर भी यदि दो परम्परायें एक साथ हजारों वर्षों तक रहें तो उनका एक दूसरे पर प्रभाव न पड़े यह संभव नहीं। एक कठिनाई यह है कि जैन परम्परा बहुत प्राचीन है, किन्तु उसका साहित्य बहुत अर्वाचीन है। जैन आगम के प्राचीनतम अंश 2300 वर्ष पुराने हैं किन्तु अधिकांश साहित्य पिछली दो सहस्राब्दियों में निर्मित हुआ। उधर प्राचीन उपनिषदों तक का विशाल वैदिक साहित्य 2500 वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। अतः उस साहित्य पर श्रमण परम्परा का कितना प्रभाव पड़ा, यह कहना कठिन है। सामान्यतः तो यही अनुमान लगाया जायेगा कि श्रमण संस्कृति ही वैदिक साहित्य से प्रभावित हुई किन्तु इन दोनों संस्कृतियों की कुछ अपनी ऐसी विशेषतायें हैं जिनके आधार पर किस संस्कृति में कौन सा तत्व विजातीय है - यह कहा जा सकता है। वैदिक परम्परा के चार पुरुषार्थों में अर्थ तथा काम पर श्रमण परम्परा का कोई प्रभाव नहीं कहा जा सकता। जहां तक धर्म पुरुषार्थ का संबंध है वैदिक साहित्य में धर्म समाज. राजनीति तथा अर्थनीति जैसे लौकिक विषयों से जुड़ा है जब कि जैन परम्परा में धर्म मोक्ष पुरुषार्थ का ही अपर पर्याय है। व्यास के अनुसार धर्म, अर्थ और काम का साधक है। जैन परम्परा में धर्म का एक मात्र प्रयोजन मोक्ष है न कि अर्थ अथवा काम। तप जैसे विषय के संदर्भ में इस अंतर को स्पष्ट समझा जा सकता है। जैन धर्म में तपस्या की बहुत महिमा है। वैदिक साहित्य में भी वेद से लेकर पुराणों तक तपस्या का बारम्बार उल्लेख है। किन्तु एक अन्तर स्पष्ट देखने में आता है। वैदिक परम्परा में हर तपस्या का अन्त किसी वरदान की प्राप्ति से होता है। जबकि जैन परम्परा में मुझे एक भी ऐसा उदाहरण ध्यान में नहीं आता जहां तपस्या के बदले में तपस्या करने वाले ने कोई वरदान मांगा हो। जैन परम्परा में तपस्या निर्जरा का कारण है जबकि वैदिक परम्परा में तपस्या किसी लौकिक कामना की सिद्धि का साधन है यहां तक कि कुमार संभव' में जब कालिदास ने शिव को तपस्या करते हुए दिखाया तो उन्हें कहना पड़ा -- "केनापि कामेन तपश्चचार।" वैदिक संस्कारों से प्रभावित कालिदास का मन यह नहीं सोच सका कि तपस्या बिना कामना के भी की जा सकती है। किन्तु शिव जैसे आप्त-काम के साथ क्या कामना जोडी जाये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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