Book Title: Sramana 1992 07
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 13
________________ प्रो. दयानन्द भार्गव यह भी वे नहीं सोच सके। इसलिये मानो रहस्यवाद की भाषा में उन्हें कहना पड़ा-केनापि कामेन तपश्चचार। तपस्या के समान ही एक दूसरा मूल्य मैत्री है जिसका उल्लेख वैदिक साहित्य में बारम्बार है। यजुर्वेद में कामना की गई है कि मैं सबको मैत्री की दृष्टि से देखू और सब मुझे मैत्री पूर्ण दृष्टि से देखें। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि जो सबका मित्र होता है और वह किसी की हिंसा नहीं करता, किन्तु वैदिक साहित्य की इस मैत्री की अवधारणा को भी जैन परम्परा की अहिंसा की अवधारणा से पृथक् करके देखना आवश्यक है। इस संदर्भ में तीन साहित्यिक प्रमाण ध्यातव्य हैं -- 1. गीता में अर्जुन द्वारा अहिंसा के मूल्य को ही आगे रख कर युद्ध न करने की बात कही गई है। यह सत्य है कि वह अपने भाई-बन्धुओं के मोह में आसक्त है और इसलिये जैन दृष्टि से भी उसकी भावना अहिंसा के लिये आवश्यक वीतरागता से परिपूर्ण न होकर रागपूर्ण ही है। किन्तु यह भी सत्य है कि जैन दृष्टि से ऐसी स्थिति में अर्जुन को युद्ध के लिये प्रेरित करना न्याय संगत नहीं था। किन्तु कृष्ण ने जो अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरणा दी उसका मुख्य आधार यह था कि युद्ध क्षत्रिय का धर्म है। जैन दृष्टि से युद्ध हमारी कमजोरी या लाचारी हो सकती है, धर्म नहीं। इस मौलिक मतभेद को ध्यान में रखें तो गीता में वे सब अंश जिनमें आपाततः श्रमण संस्कृति का प्रभाव परिलक्षित होता है एक प्रकार से श्रमण संस्कृति के मूल्यों को वैदिक परम्परा के मूल्यों की अपेक्षा गौण एवं आनुषझिक बनाने देने का प्रयत्न ही माना जायेगा। इसमें सन्देह नहीं कि गीताकार को स्थित-प्रज्ञ का स्वरूप निरूपण करते समय श्रमण संस्कृति के सर्वोत्तम मूल्यों का पूरा आभास है। किन्तु साथ ही यह भी निःसंदिग्ध है कि गीताकार अपने पाठक को यह बताना चाहते हैं कि श्रमण संस्कृति के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये जीवन के संघर्ष से उस प्रकार के पलायन की आवश्यकता नहीं है जिसे श्रमण संस्कृति मुनि धर्म नाम देती है। इस स्थिति को मैं गीता पर श्रमण संस्कृति के प्रभाव की अपेक्षा वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता उद्घोषित करने का प्रयास ही मानूंगा, यद्यपि गीता की जो व्याख्या शंकराचार्य अथवा विनोबा भावे ने की उसे मैं श्रमण संस्कृति का प्रभाव ही कहूँगा। किन्तु गीता की एक व्याख्या लोकमान्य तिलक की भी है और वर्तमान में सामान्य हिन्द के मन को तिलक की ही व्याख्या ज्यादा समीचीन प्रतीत होती है। 2. अहिंसा के संदर्भ में एक दूसरा प्रसंग कालिदास के 'अभिज्ञान शाकुन्तल' का है श्लोक का अर्थ इस प्रकार है - यज्ञ में पशु हिंसा करने वाला ब्राह्मण क्रूर नहीं कहा जा सकता क्योंकि वह शास्त्रोक्त कर्म कर रहा है। इस प्रकार जहां गीता में युद्ध के प्रसंग में क्षत्रिय द्वारा शस्त्र संचालन धर्म मान लिया वहां यज्ञ के प्रसंग में ब्राह्मण द्वारा पशु का आलम्भन धर्म माना गया। सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि यज्ञ में पशु-बलि का जैनों ने बहुत विरोध किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैन किसी भी प्रकार की हिंसा के विरुद्ध थे। किन्तु जैनों के १. अभिज्ञान शकुन्तलम् -६/१ शहजे किल जे विणिन्दिदे ण हु शे कम्म विवज्जणीअके। Jain Eduपशुमालि कलेइ कालणा छक्कम्मा विदुवे दि शोत्तिके | Methly www.jainelibrary.org

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