Book Title: Sramana 1992 07 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 6
________________ की चोरी है । अदत्तादान के पाँच अतिचारों से इसकी वर्तमान प्रासंगिकता और अधिक होती है। प्रथम स्तेनाहृत अर्थात् चोरी की वस्तु को ग्रहण करना या खरीदना, तस्कर - प्रयोग अर्थात् चोर-डाकुओं आदि अवांछनीय तत्वों की हर प्रकार से सहायता उन्हें शरण देना एवं उनका समर्थन करना, तृतीय राज्यादिविरुद्ध कर्म अर्थात् कर-चोरी, अनुमति के दूसरे राष्ट्रों की सीमा का उल्लंघन करना, निषिद्ध वस्तुओं का अन्य देश आयात-निर्यात करना, राज्य के कानूनों को तोड़ना, राज्य - हित के विरुद्ध षड्यन्त्र करना अ चतुर्थ, कूटतोल या कूटमान अर्थात् लेन-देन में न्यूनाधिकता का प्रयोग करके दूसरों के विश्वासघात आदि करना और पंचम तत्प्रतिरूपक व्यवहार अर्थात वस्तुओं में मिलावट अनुचित लाभ उठाना, दूसरों को धोखा देना आदि । भ्रमण, जुलाई-सितम्बर, १६ समाज के बढ़ते हुए व्यभिचार एवं वेश्यावृत्ति को रोकने, तज्जन्य एड्स (Aids) & जैसी घातक बिमारियों के उन्मूलन एवं स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु श्रावकों के लिए प्रतिप स्वदार सन्तोष-व्रत का प्रतिपादन वर्तमान समय के लिए अप्रासंगिक नहीं ठहराया जा स है। श्रावकों हेतु प्रतिपादित ब्रह्मचर्य या स्वदार सन्तोष का तात्पर्य है स्व - पत्नी के अतिरि शेष समस्त स्त्रियों के साथ मैथुन सेवन का मन, वचन और शरीर से त्याग करना । मनुष्य की इच्छाएं अनन्त हैं। इच्छापूर्ति इच्छा - अग्नि की वृद्धि में घृत का कार्य करती तृष्णा को बढ़ाती है। अतः इच्छातृप्ति का श्रेष्ठ उपाय है, इच्छा-परिमाण एवं इच्छा-नियन्त्र साधारण लोगों के लिए तो इच्छाओं का सर्वथा त्याग (अपरिग्रह ) सम्भव नहीं है, पर अ परिमित अवश्य किया जा सकता है। मनुष्य को उतना ही रखना या संग्रह करना चाहिए जि उसके एवं उसके आश्रितों के लिए अनिवार्य हो । अनावश्यक संग्रह ही हमारी सामाजि विषमता का मुख्य कारण है। समाज में बढ़ते हुए विद्वेष, संघर्ष, शोषण, गरीबी, छल-कप वर्गभेद, चोर-बाजारी, मुनाफाखोरी, पूँजीवाद आदि के लिए हमारी आवश्यकता से अधि संग्रह करने की मनोवृत्ति ही उत्तरदायी है । यदि हम वास्तव में सरल एवं सच्चे समाजवाद स्थापना करना चाहते हैं, सामाजिक न्याय को सच्चे अर्थों में प्रतिष्ठित करने के इच्छुक हैं, हमें अपनी बढ़ी हुई तृष्णाओं पर अंकुश लगाना ही होगा । जैन-धर्म में न केवल सैद्धान्तिक रूप से अणुव्रतों का विधान किया गया है प्रत्युत उनकी रक्षा एवं विकास के लिए गुणव्रतों की भी व्यवस्था की गयी है, जो तीन हैं दिशापरिमाणव उपभोग- परिभोग परिमाणव्रत एवं अनर्थदण्ड विरमण व्रत । इच्छा परिमाण या परिग्रह परिमा रूप पाँचवे अणुव्रत की सुरक्षा हेतु एवं उसे उचित रूप से व्यवहार में लाने के लिए दिशापरिमाण रूप गुणव्रत का प्रतिपादन किया गया है अर्थात् अपनी आवश्यकतानुसार अपने व्यापार आदि के लिये दिशा की मर्यादा निश्चित होने पर हमारी तृष्णा भी वहीं तक सीमित हो जाती है। इसी मार्ग का अनुसरण करके हम अपनी प्रतिभाओं का पलायन, जो विदेशों की ओर हो रहा है, रोक सकते हैं। दिशा-परिमाण के जो पाँच अतिचार बताये गये हैं, उनसे दिशा - परिमाण की स्थिति और अधिक स्पष्ट हो जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.orgPage Navigation
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